हर साल मुहर्रम का चाँद दिखाई देते ही ,हर तरफ कर्बला, या हुसैन की सदा सुनाई देने लगती है, लोगों की ज़बान पे पैगाम है इंसानियत,सब्र...
कल १० मुहर्रम आशूरा का रोज़ है जिस दिन इमाम हुसैन शहीद हुए थे. कल मुसलमान जो ग़म ए हुसैन मनाते हैं, शाम से ही घरों मैं चूल्हा नहीं जलाते, बिस्तर पे आराम से नहीं सोते, दिन मैं भी शाम के पहले खाना नहीं खाते और पानी नहीं पीते.दिन भर रोते हैं शोक सभाओं मैं बैठ के मातम करते हैं. या यह कह लें की ऐसे रहते हैं जैसे अभी आज ही किसी का इन्तेकाल हुआ है. यह इतिहास की ऐसी शोकपूर्ण घटना है कि जिसकी यादें १३७९ वर्ष से सारी दुनिया में लोग मनाते हैं.
आज सोंचा चलो जब ईद , दिवाली, दसहरा आप सब के साथ मिल के मनाते हैं तो मुहर्रम क्या है और क्यों मनाते हैं यह भी बताता चलूँ. क्यों की इमाम हुसैन (ए.स) की क़ुरबानी और उनका ग़म किसी धर्म विशेष की जागीर नहीं है.आज इमाम हुसैन (ए.स) की शहादत मुसलमानों का हर एक फिरका मनाता है. कोई उनकी सभा बुला के उनकी तारीफें करता मिल जाता है तो कोई काले कपडे पहन की फर्श ए अजा (शोक सभा) मिलेगा.
ज़ाहिरी तौर पे ऐसा दिखी देता है की जैसे यह मुसलमान अपने नबी के नवासे की शहादत का ग़म मना रहे हैं. लेकिन जब ध्यान से देखा तो पाया की दुनिया भर के सभी सत्यप्रेमी मानवता के पुजारियों ने हुसैन के बेजोड़ बलिदान को सराहा और श्रद्धांजलि अर्पित की है. कभी राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी को कहते पाया की "मैंने हुसैन से सीखा है अत्याचार पर विजय कैसे प्राप्त होती है तो कभी है तो कभी डॉ राजेंद्र प्रसाद को कहते पाया "शहादत ए इमाम हुसैन (अस) पूरे विश्व के लिए इंसानियत का पैग़ाम है. कभी डॉ . राधा कृष्णन को कहते पाया " इमाम हुसैन की शहादत १३०० साल पुरानी है लेकिन हुसैन आज भी इंसानों के दिलों पे राज करते हैं. रबिन्द्रनाथ टगोर ने कहा सत्य की जंग अहिंसा से कैसी जीती जा सकती है इसकी मिसाल इमाम हुसैन हैं.
कितनी जगहों पर ग़ैर मुस्लिम भी इसको अपने रंग में मनाते हैं. मुहर्रम का चाँद देखते ही , ना सिर्फ मुसलमानों के दिल और आँखें ग़म ऐ हुसैन से छलक उठती हैं , बल्कि हिन्दुओं की बड़ी बड़ी शख्सियतें भी बारगाहे हुस्सैनी में ख़ेराज ए अक़ीदत पेश किये बग़ैर नहीं रहतीं.
ऐसा क्यों है यह समझने के लिए कर्बला क्यों हुई और कर्बला मैं क्या हुआ था इसको समझना आवश्यक है.
हज़रत मुहम्मद (स.अव) की शहादत के बाद , इस्लाम के कानून मैं बादशाहत के असरात दिखाई देने लगे , और मुसलमानों के खलीफा हज़रत अली (ए.स), जो की हज़रत मुहम्मद (स.ए.व) के दामाद भी थे उनको माबिया ने, जो बनी उमय्या का एक सरदार और प्रभावशाली व्यक्ति था, की बग़ावत का शिकार होना पड़ा और शहीद कर दिए गए.
उनके बाद खिलाफत माबिया के हाथ मैं आ गयी. हज़रत इमाम हसन जो हज़रत अली (ए.स) के बड़े बेटे थे उनको भी माबिया ने ज़हर दे के शहीद कर दिया गया . अपनी ज़िंदगी मैं माबिया ने अपने ज़ालिम और दहशतगर्द बेटे यज़ीद को खलीफा बना दिया , जिसका चरित्र नितान्त दोष युक्त था. इस्लाम मे जो हराम था उसको हलाल करने की कवायद शुरू हो चुकी थी, सरकारी खज़ाना अपने फायेदे के लिए इस्तेमाल होने लगा था. जब लोगों ने आवाज़ उठाई इस फैसले के खिलाफ तो पैसे और अत्याचार से उनकी ज़बानें बंद करवा दी गईं.
माबिया के मरने के बाद यजीद और बेलगाम हो गया और उसने हज़रत अली (ए.स) के बेटे इमाम हुसैन (ए.स) से कहा की वोह उसे अपना धार्मिक गुरु या पेशवा मान लें वरना मरने के लिए तैयार हो जाएं.
इमाम हुसैन ने समझ लिया कि इस्लाम और सच्चाई को बचाने के लिए उन्हें जान तो देना है मगर इस तरह की दुनिया को स्पष्ट मालूम हो कि हुसैन ने क्यों जान दी ? और उनके दुश्मनों ने उन्हें क्यों मारा ? यानी सत्य और असत्य की जो लड़ाई संसार में सदैव से होती आयी है वह एक नये ढंग से लड़कर दिखाई जाय.
इमाम हुसैन ने परिस्थिति को देखकर मदीना छोड़ने का निश्चय कर लिया. हुसैन अपने घराने वालों के साथ मदीने से मक्का रवाना हुए. पहले वह मक्के गये मगर वहाँ भी यज़ीद के लोग मौजूद थे जो चाहते थे कि हज के अवसर पर चुपके से इमाम हुसैन को मार डालें और अपराध किसी और , के सिर मढ़ दिया जाये. मगर हुसैन तो यह चाहते थे कि जान इस तरह दें कि दुनिया को अच्छी तरह मालूँम हो जाय कि हुसैन ने क्यों जान दी, और किसने उनको मारा ? इसलिए आप हज किये बिना ईराक की तरफ़ रवाना हो गये. ये छोटा सा क़ाफ़िला अरब की गर्मी की कठिन यात्रा के दुख झेलता हुआ चला जा रहा था. हर मंज़िल पर लोग हुसैन से आग्रह करते थे कि ख़ुदा के लिए वापिस चले जाइये, यज़ीद की शक्ति बहुत बड़ी है और उनकी सहस्त्रों की संख्या में सेनाएँ जमा हो रही हैं. मगर हुसैन मुहम्मद के नवासे और अली के बेटे थे, जिन्होने ख़ुदा के बताए रास्ते पर चलने के लिए हमेशा ख़ुशी-ख़ुशी दुख झेला था, वे अपने इरादे में अटल रहे और यात्रा की कठनाइयाँ सहन करते हुए कूफा की तरफ आगे बढ़ते रहे.
रास्ते मैं यजीद की फ़ौज का सेनापति हुर्र मिला जिसने इमाम हुसैन (ए.स) को कूफा जाने से रोका. इमाम हुसैन (ए.स) ने विरोध किया लेकिन फिर मजबूरन मान ना पड़ा और यह काफिला कर्बला की और चल पड़ा. इमाम हुसैन (ए.स) का किरदार देखिये की जो हुर्र ने उनका रास्ता बदल की यजीद की फ़ौज की तरफ ले जा रहा था, रस्ते मैं उसकी फ़ौज मैं पानी ख़त्म हो गया तो इमाम हुसैन ने उन सभी को पानी पिलाया यहाँ तक की उस फ़ौज के जानवरों को भी सैराब किया.
मुहर्रम के महीने की 2 तारीख़ थी जब इमाम हुसैन का यह काफिला कर्बला पहुंचा और नहर ए फुरात के किनारे अपने तम्बू लगा लिए.इमाम हुसैन के साथ सत्तर-बहत्तर आदमी थे और उनमें भी कुछ बहुत बूढ़े लोग थे और कुछ नयी उम्र के लड़के, चन्द जवान और नौजवान थे.
यजीद की फ़ौज ने इमाम के परिवार वालों का डेरा नहर के किनारे से हटवा दिया, जिस से उनको पानी ना मिल सके.
2 से 7 तक मुहर्रम तक इमाम हुसैन ,उनके भाई हज़रत अब्बास और उनके कुछ बुज़ुर्ग साथी यज़ीद की सेना के अधिकारियों से बात-चीत करते रहे, उन्हें समझाते रहे कि तुम क्यों निर्दोषों का ख़ून अपने सिर लेते हो. हुसैन ने यह भी कहा कि मुझे यज़ीद के पास ले चलो, मैं स्वंय उससे बात-चीत कर लूँगा. ये रिवायत भी है कि उन्होने ने कहा, मैं किसी और देश, हिन्दुस्तान की ओर चला जाना चाहता हूँ जहाँ मुसलमान तो नहीं लेकिन इंसान रहते हैं . मगर इन अधिकारियों को सख़्ती से यह आदेश दिया गया था कि या हुसैन और उनके परिवार को कहीं ना जाने दिया जाए.
7 मुहर्रम से यज़ीद की फौजों ने नदी पर पहरा बिठा दिया और हुसैन की फौजों तक पानी का पहुँचना बन्द हो गया और खाद्य-सामग्री के रास्तों की नाका बंदी कर दी गयी. वह समझते थे कि हुसैन और उनके साथी अगर और किसी तरह से नहीं दब सकते तो नन्हें बच्चों और औरतों की भूख प्यास तो उनको झुका ही देगी।.मगर वे क्या जानते थे कि हुसैन का सिर कट सकता है, अत्याचार और झूठ के सामने झुक नहीं सकता.
फिर मुहर्रम की रात आगयी जब यह तै हो गया की यजीद के तीस हज़ार के लश्कर से हुसैन (ए.स) के ७२ की जंग होगी.
इमाम हुसैन (ए.स) ने रात मैं रौशनी बुझा दी और अपने साथियों से इमाम ने कहा "मैं किसी के साथियो को अपने साथियो से ज़्यादा वफादार और बेहतर नहीं समझता कल का दिन हमारे और इन दुश्मनो के मुकाबले का है मैं तुम सब को बखुशी इजाज़त देता हूँ की रात के अंधेरे मे यहा से चले जाओ मुझे तुमसे कोई शिकायत नहीं होगी, यह लोग सिर्फ मेरे खून के प्यासे है,यजीद के फौजी उसको जाने भी देंगे जो मेरा साथ छोड़ के जाना चाहेगा. कुछ समय बाद रौशनी फिर से कर दी गयी और देखा की एक भी साथी इमाम हुसैन का उनका साथ छोड़ के नहीं गया. इतिहास साढ़े तेरह सौ वर्ष से इस पर चकित है की इमाम हुसैन (ए.स) मैं ऐसा क्या था की आज्ञा देने के बाद भी कोई उनका साथ छोड़ के नहीं गया. उस से भी अधिक आश्चर्य की बात यह की जो हुर्र यजीद का सेनापति था, जिसने हुसैन का रास्ता कूफा से कर्बला की और मोड़ा था, जिसने इमाम पे पानी ७ मुहर्रम से बंद कर दिया था , उसी शाम अँधेरे मैं इमाम हुसैन (ए.स) के पास आ गया और क़ुरबानी देने की इजाज़त मांगी.
जावेद बदायुनी ने कहा :
दिल की आवाज़ भी है ज़हन की परवाज़ भी है
“हुर्र ”! यह हिजरत तेरा अंजाम भी आग़ाज़ भी है
लाश .ए “अब्बास ” पे रो रो के वफाओं ने कहा
तेरे मरने पे हमें रुंज भी है नाज़ भी है
१० मुहर्रम की सुबह आये, सभी नमाज़ मैं खड़े हो गए, लश्कर के यजीद की तरफ से तीरों की वर्षा होना शुरू हो गयी और ३० लोग नमाज़ पढ़ते मैं ही शहीद हो गए.
फिर जंग मैं यजीद की फ़ौज ले लड़ने एक एक कर के लोग जाते रहे . सबसे पहले हुसैन के साथियों ने लड़ाई में जान क़ुर्बान की, जिसमें इमाम के बूढ़े दोस्त हबीब इब्ने मज़ाहिर और जनाब ए हुर्र भी थे.
फिर इमाम हुसैन के रिश्तेदारों की बरी आयी. जिसमें इमाम का भतीजा कासिम और भांजे ऑन ओ मुहम्मद , भाई हज़रत अब्बास (लश्कर के सेनापानी) , बेटा अली अकबर भी थे.
उनकी माएं अपने बेटों को सजा के , सिपाही की तरह भेजती थीं और बाद शहादत ५७(56 साल 5 महीने और 5 दिन) साल के भूखे प्यासे इमाम हुसैन (ए.स) ,सभी को लेके खेमे (तम्बू) मैं ले आते थे.इनमें से किसी का भी जिस्म पूरा ना आया खेमे मैं.
अपने बेटे, भाई, भतीजों के लाशे देखे के औरतें रोती और मातम करती थीं और दूसरे बेटे को शहीद होने के लिए तैयार किया करती थी.
जब सब शहीद हो गए तो इमाम हुसैन (ए.स) ने फ़ौज ए यजीद से कहा, तुम्हारा मुजरिम मैं हूँ, मेरा बेटा ६ महीने का है, प्यासा है, एक काम करो इसको पानी दे दो , चाहे बाद मैं मुझे मार देना. पानी के सवाल पर यज़ीदी-सेना ने तीर बरसाये। बच्चे की गरदन पर तीर बैठा और वह बाप के हाथों में ख़त्म हो गया.
अब इमाम हुसैन (ए.स) और उनके बड़े बेटे इमाम सज्जाद ही बचे थे. इमाम सज्जाद बीमार थे और बेहोश थे. इमाम हुसैन (ए.स) ने बेटे सज्जाद को हिलाया और कहा बेटा सब शहीद हो चुके, तुममें जंग करने की ताक़त नहीं, अब मैं जाता हूँ शहीद होने ऐ बेटा परेशानिओ का सामना करते करते जब कभी मदीना पहुचना तो सब से नाना जान ( मोहम्मद साहब) के रौजे (कब्र) पर जाना, मेरा सलाम कहना और सारा आंखो देखा हाल सुनना, फिर मेरी माँ सय्यदा फातिमा की कब्र पर जाना और मेरा सलाम कहना फिर मेरे भाई हज़रत हसन की कब्र पर जाना और मेरा सलाम कहना,, मेरे बाद तुम ही मेरे जाँ नशीन हो !! इसके बाद इमाम हुसैन ने अपना साफा ( पगड़ी ) इमाम जाइनुल आबीदीन को पहनाया और वापस बिस्तर पर लिटा दिया
इमाम हुसैन (ए.स) ने अपना रुख मैदान ए जंग की तरफ किया. जंग के पहले अल्लाह से दुआ की और इसके बाद इमाम हुसैन ने याजीदी फौज को मुखातिब करते हुए कहा कि बताओ तुम लोग मेरे खून के प्यासे क्यो हो, क्या मैंने किसी को कत्ल किया ? या किसी का माल बर्बाद किया ? या किसी को ज़ख्मी किया जिसका तुम मुझ से बदला लेना चाहते हो ,, इन बातों का याजीदी फौज के पास कोई जवाब न था ! जब फ़ौज ने कुछ ना सुना इमाम हुसैन (ए.स) ने भी जंग शुरू की और लश्कर ए यजीद से जंग करते रहे . उनके जिस्म पे इतने तीर लगे थे की जब शाम(असर) का वक़्त होने को आया, इमाम हुसैन (ए.स) ने नमाज़ के लिए घोड़े से उतेरना चाहा तो उनका शरीर ज़मीं पे ना आया बल्कि तीरों पे टिका रहा.इमाम ने सजदे मैं सर को झुकाया . शिमर ने प्यासा , इमाम के गले पे कुंद खाजेर चला के सर अलग किया, जश्न मनाया जाने लगा.
इस तरह करबला की यह छोटी सी बस्ती जो २ मुहर्रम को बसी थी 10 मुहर्रम को उजड़ गयी.
इमाम के खेमे मैं आग लगा दी गयी, शहीदों के सिर काट लिए कि यज़ीद को पेश करेंगे और इनाम लेंगे. औरतों बच्चों और बीमार इमाम सजाद को ज़ंजीर, हथकड़ी और बेदी पहना के कोड़े मारते १६०० किलोमीटर दमिश्क़ तक, जो यज़ीद की राजधानी थी, ले गये और वहाँ क़ैद कर दिया गया.
जावेद बदायुनी ने कहा :
जलते खेमों पे अदू खुश है उसे क्या मालूम
यह धुवां जंग का अंजाम भी आग़ाज़ भी है
यह इतिहास की ऐसी शोकपूर्ण घटना है कि जिसकी यादें साढ़े तेरह सौ वर्ष से मुसलमान और ग़ैर मुसलमान सभी मनाते हैं. बिहार,उडीसाऔर उत्तर प्रदेश में कई स्थानों पर हिंदू ताज़िए के प्रति अपना सम्मान प्रकट करते हैं. बिहार के सिवान ज़िले के हसनपुरा गाँव के नानकशाही मठ से पिछले तीन सौ वर्षों से ताज़िया जुलूस निकाला जाता है जहाँ आज महंत रामदास पूरी श्रद्धा के साथ ताज़िए को कंधा देते हैं .हमारे ब्लोगर भाई सिद्धार्थ त्रिपाठी ने अपने गाँव मैं ताज़िया मेले का विवरण अच्छे अंदाज़ मैं दिया है. "
और बड़वानी जिले के राजपुर में तहसील मुख्यालय पर पचास से अधिक वर्षों से ताजिए बना रहे गरीब हिन्दू परिवारों ने यह संदेश दिया है कि गम का रिश्ता किसी कौम विशेष से नहीं है।
मुंशी प्रेमचंद जी ने किसी समय हजरत इमाम हुसैन की शहादत से प्रभावित होकर "कर्बला" नाटक लिखा था। उन्होंने इसमें ऐतिहासिक तथ्य दिया था कि कर्बला की लड़ाई में कुछ हिन्दू योद्धाओं ने भी हजरत हुसैन के पक्ष में युद्ध कर प्राणोत्सर्ग किया था.
बहुत ही मशहूर है की हिन्द से एक ब्राह्मण जिनका नाम रहिब दत्त था इमाम हुसैन की तरफ से याजीदियों से लड़े थे और हिंदी रतनसेन का किस्सा भी बहुत मशहूर है जो फिर कभी बात चली तो बताऊंगा .
शायद इसी लिए हज़रत मुहम्मद (स.अव) साहब कहा करते थे" “हिंद से मुझे मुहब्बत की खुशबू आती है”
इमाम हुसैन ने शहादत दे के पूरी दुनिया तो यह पैगाम दिया है की ज़ुल्म और ज़बरदस्ती के आगे किसी भी हाल मे झुकना नहीं चाहिए, सच्चाई और ईमानदारी के लिए हमेशा कुरबानी देने के लिए तैयार रहना चाहिए. आज दुनिया मे १३७० साल से हर साल इमाम हुसैन (ए.स) की क़ुरबानी याद करके आज भी लोग रोते है जबकि याजीद का नाम लेवा कोई नहीं है.
आज अगर इंसानियत, बन्दगी, दोस्ती, दूसरों की ख़िदमत, कमज़ोरों की मदद , मज़लूमों की तरफ़दारी ,समाज मैं अमन और शांति का जज़्बा हम में पाया जाता है तो यह सब इमाम हुसैन (अ) की क़ुर्बनिओन का नतीजा है.
विश्व का कोई भी ऐसा देश नही है, जहां हुसैन के त्याग व बलिदान की याद न की जाती हो। हिन्दू, मुस्लिम, सिख, ईसाई श्रद्धा के साथ हुसैन का नाम लेता है.
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