" अमन के पैग़ाम" पे सितारों की तरह चमकें की पहली पेशकश . रज़िया राज़ जी की जितनी तारीफ की जाए कम है. जब मैंने उन से निवेदन कि...
रज़िया राज़ जी की जितनी तारीफ की जाए कम है. जब मैंने उन से निवेदन किया कोई कविता भेजने का तो उनका जवाब फ़ौरन आ गया " मासूम साहब मैं हज्ज पे मक्का मैं हूँ आप को वहां से यह कविता भेज रही हूँ. मैं यकीनन उनका आभारी हूँ की उन्होंने अमन के पैग़ाम की अहमियत को समझा.
आज मै “मक्का “हूँ जो की अल्लाह का घर है जिसे कहते है “खान-ए-काबा” | यहाँ सारी दुनिया के लोग हज के अरकान पूरा करने आते हैं| सारा के सारा पाक माहोल नज़र आता है| मैं यहाँ अपने वतन से दूर अल्लाह के घर आई हूँ| अपनी माटी से दूर रहकर अपने वतन की जुदाई क्या होती है मैंने ये महसूस किया है| मै दिल से अपने रिश्तेदारों के साथ साथ अपने प्यारे वतन की दुआ करती हूँ| ” हमारे वतन में सदा ही भाईचारा-शान्ति बनी रहे “| ”अल्लाह सभी को नेक तौफीक दे और भटके हुओं को सही राह दिखाए ऐसी दुआ करती हूँ| सारी दुनिया से आतंकवाद का साया दूर हो और शान्ति बनी रहे|
अपने वतन से इतनी मुहब्बत के लिए और हज्ज के मौके पे इस बेहतरीन दुआ के लिए "हमारे वतन में सदा ही भाईचारा-शान्ति बनी रहे" रज़िया मिर्ज़ा जी को अमन के पैग़ाम की तरफ से सलाम.
पेश ए खिदमत है रज़िया राज़ जी की कविता ओ इन्सान को बाँटनेवालो, क़ुदरत को तो बाँट के देख़ो।
ओ भगवान को बाँटनेवालो, क़ुदरत को तो बाँट के देख़ो।
कोइ कहे रंग लाल है मेरा, कोइ कहे हरियाला मेरा।
रंग से ज़ुदा हुए तुम कैसे ओ रंगों को बाँटनेवालो? ओ इन्सान को....
आसमाँन की लाली बाँटो, पत्तों की हरियाली बाँटो,
रंग सुनहरा सुरज का और चंदा का रुपहरी बाँटो।
मेघधनुष के सात रंग को बाँट सको तो बाँट के देखो। ओ इन्सान को....
आँधी आइ धूल उठी जब, उससे पूछ लिया जो मैने।
कौन देश क्या धर्म तुम्हारा, वो बोली मेरा जग सारा।
मुज़को हवा ले जाये जीधर भी में उस रूख़ पे उडके जाउं।
ना कोइ मज़हब टोके मुज़को, ना कोइ सीमा रोके मुज़को।
मिट्टी के इस बोल को बाँटो ओ सरहद को बाँटनेवालो... ओ इन्सान को....
नदिया अपने सूर में बहती, गाती और इठ्लाती चलदी।
मैने पूछा उस नदिया से कौन देश है चली किधर तू?
हसती गाती नदिया बोली, राह मिले मैं बहती जाउँ।
ना कोइ मज़हब टोके मुज़को, ना कोइ सीमा रोके मुज़को।
नदिया के पानी को बाँटो, ओ मज़हब को बाँटनेवालो। ओ इन्सान को....
फ़ुल ख़िला था इस धरती पर, महेक चली जो हवा के रुख़ पर।
मैने पूछा उस ख़ुश्बु से चली कहाँ खुश्बु फ़ैलाकर।
ख़ुश्बु बोली कर्म है मेरा, दुनिया में ख़ुशबु फ़ैलाना।
ना कोइ मज़हब टोके मुज़को, ना कोइ सीमा रोके मुज़को।
फ़ुलों की ख़ुश्बु को बाँटो, ओ गुलशन को बाँटनेवालो। ओ इन्सान को....
उडते पँछी से जो मैने पूछ लिया जो एक सवाल।
कौन देश क्या धर्म तुम्हारा, हँस के वो ऐसे गया टाल!
पँछी बोला सारी धरती, हमको तो लगती है अच्छी।
ना कोइ मज़हब टोके मुज़को, ना कोइ सीमा रोके मुज़को।
आसमाँन को बाँट के देख़ो, उँचनीच को बाँटनेवालो। ओ इन्सान को....
……………….रज़िया मिर्ज़ा का आदाब ..रज़िया राज़
पर हाँ | एक बात ज़रूर कहूँगी मुझे मेरा “वतन” बहोत………..याद आ रहा है|…..रज़िया राज़
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भेजने का पाता है ( amankapaigham@evasai.com )….S.M.Masum
हज़रत अली (अ.स) ने कहा: यह ना देखो की कौन कह रहा है, यह देखो कि क्या कह रहा है.