धर्म की आड़ में सामाजिक बुराइयों का फैलना दस्तूर के नाम पे या अंधविश्वास के नाम पे कोई नयी बात नहीं | सदियों से यह होता आया है | य...
धर्म की आड़ में सामाजिक बुराइयों का फैलना दस्तूर के नाम पे या अंधविश्वास के नाम पे कोई नयी बात नहीं | सदियों से यह होता आया है | यह बुराइयां या तो अज्ञानतावश फैलती है या अंधविश्वास के कारण फैलती हैं और इन्हें धर्म के नाम पे समाज में फैलाने का काम धर्म के ठेकेदार ही किया करते हैं अपनी दुकाने चलाने के लिए | किसी भी धर्म में आज धर्मगुरु बनाने के लिए कोई कानून नहीं कि कौन उस धर्म का सबसे बड़ा ज्ञानी है और धर्म के कानून को सही तरीके से समाज में जारी करेगा | और अगर किसी धर्म में ऐसा है भी तो छोटे शहर वाले उन बड़े धर्मगुरुओं तक आसानी से अपनी समस्या का समाधान ले के पहुँच नहीं पाते और अपने आस पास के ऐसे मुल्ला पंडितों के चक्कर में पड़ जाते हैं जिनके पास धर्म का अधिक ज्ञान नहीं होता या वो धर्म के नाम पे पैसा कमाने की दुकानें चला रहे होते है |
ऐसा नहीं की केवल मुसलमानों के बीच धर्म के नाम पे सामाजिक बुराइयां शामिल हुयी है बल्कि आज कम या अधिक हर धर्म इस बुराई का शिकार हो रहा है | यह बुराइयां उसी समय दूर की जा सकती हैं जब उस जगह के लोगों को जागरूक किया जाय और धर्म के सही कानून को चलाने की कोशिश की जाय | लेकिन छोटे कस्बों, गाँव ,शहरों में यह काम आसान नहीं हुआ करता वहाँ के रहने वालों के लिए क्यूँ की जब वो अजाज़ उठाते हैं तो उस इलाके के लोग जो इन बुराइयों को अंजाम दे रहे होते हैं या उनके जहील मुरीद आवाज़ उठाने वाले का जीना महाल कर देते हैं और आवाज़ दब के रह जाती है |
जैसे एक बार में तीन बार तलाक कह के तलाक देना एक सामाजिक बुराई है और इसका चलन छोटे गाँव इत्यादि में बड़े शहरों के मुकाबले अधिक है | इसके खिलाफ कानून यदि आया तो बड़े शहरों में तो कानून से फायदा होगा लेकिन छोटे शहरों में यह प्रथा बंद नहीं होगी क्यूंकि वहां इस प्रथा को चलाने वालों के खिलाफ आवाज़ उठाना या कोर्ट में जाना आसान काम नहीं |
सरकार यदि इमानदारी से धर्म के नाम पे धर्मो में आती जा रही कुप्रथाओं के खिलाफ काम करना ही चाहती है तो सबसे पहले उसे लोगों को छोटे शहरों में जागरूक करे और उस कुप्रथा के खलाफ काम करने वालों का सहयोग करे वरना कानून कितने भी बना लोग यह दबे कुचले छोटे कस्बों के लोग मजबूर ही रहेंगे उन कुप्रथाओं को अपनाने को, जैसे समाज के डर से की तीन तलाक एक बार सुनने के बाद इसे नियति मान के कुबूल कर लेने के सिवाय महिलाओं के पास कोई रास्ता नहीं |
और अंत में यह भी कहता चलूँ फतह का फतवा से चैनल तो चल सकता है लेकिन समाज से कुप्रथाओं का अंत संभव नहीं और ना ही केवल एक धर्म को निशाना बना लेने से सामाजिक बुराइयों या कुप्रथाओं का अंत होने वाला |
मसला यह नहीं ये मसले हल कौन करे
मसला यह है की अब इसमें पहल कौन करे |
आसमा दूर ज़मीन सख्त कहाँ जाय कोई
काश ऐसे में चला आये कोई |
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