जन्म के पहले से ही यह कशमकश लोगों में शुरू हो जाती है की लड़का होगा या लड़की ? लकड़ा होने पे लड्डू बंटते और लड़की होने पे मुरझाया चेहरा अक्स...
जन्म के पहले से ही यह कशमकश लोगों में शुरू हो जाती है की लड़का होगा या लड़की ? लकड़ा होने पे लड्डू बंटते और लड़की होने पे मुरझाया चेहरा अक्सर देखने में हम सभी को अपने आस पास मिल जाया करता है | भ्रूण हत्या तो आज एक बड़ी समस्या बनती जा रही है | अधिकतर मामलों में लड़की का जन्म होते ही सास का चेहरा सब से अधिक मुरझाया दिखता है और कलंकिनी और मनहूस, इत्यादि खिताबों से बहु को नवाजते भी सास ही दिखा करती है| भूर्ण हत्या में भी सास एक अहम् रोल निभाती है | इसका यह मतलब नहीं की पुरुष इन मामलों में दोषी नहीं है लेकिन महिला का साथ उसे इन मामलों में हर समय मिलता रहता है |
हर माँ बाप अपने बच्चे से एक सामान प्रेम करते हैं तो यह मुरझाया चेहरा बेटी के आने से क्यूँ दिखता है ? यकीनन समस्या हमारे समाज के दस्तूरों में छुपी हुयी है ना की सास (दादी) या माँ बाप की मुहब्बत में |
हम जिस समाज में रह रहे हैं वहाँ लड़की एक बोझ के सामान हुआ करती है और हर माँ बाप मजबूर होते हैं अपनी जान के टुकड़े अपनी बेटी को किसी दुसरे अनजान व्यक्ति के हवाले करने के लिए | यहाँ मैंने अनजान शब्द का प्रयोग जान बूझ के किया है क्यूँ की शादी उस से की जाती है जिसे हम पसंद करते हैं लेकिन हमारे समाज में यह हर बार संभव नहीं होता और कहाँ रिश्ते मिलते हैं आसानी से ? तो क्या किया जाए ? ब्याह दो घर द्वार अच्छा देख के किसी अजनबी के हाथ अपनी जान का टुकड़ा बेटी को और करो इंतज़ार अच्छी या बुरी खबर का |
हम कैसे समाज में रह रहे हैं सोंचता हूँ तो हंसी आती है जहां अपनी बेटी को १८-२०-२५ साल तक पाल पोस के ,पढ़ा लिखा के, २०-३० लाख का दहेज़ दे के , ब्लीच व्लीच करवा के, सुंदर बना के एक अजनबी के हवाले कर दिया जाता है जहां उनकी बेटी की आज़ादी सीमित हो जाती है, कभी पति की आज्ञा का पालन कभी सास ससुर और बहुत बार तो मार अत्याचार, बलात्कार की शिकार हो जाती है |
होना तो यह चाहिए की लड़की की शादी उस से की जाए जिसे वो पसंद करती हो और लड़का किसी भी लड़की को ब्याह के अपने घर लाने से पहले उसके रहने का इंतज़ाम करे और साथ साथ मिल के अपना घोसला बनाएं और आज्ञा पालन की जगह आपसी समझौते को जगह मिला करे | लेकिन समाज के कानून तो ऐसे हैं की बेटी बन जाती है बोझ और बेटा बन जाता है खजाने की चाभी | साफ़ ज़ाहिर है की यह पुरुष प्रधान समाज का बनाया कानून है |
कोई भी लड़की हो कितनी भी मॉडर्न हो या शादी के पहले बड़ी बड़ी आज़ादी की पुरुषों से बराबरी की बातें करती हो शादी होते ही गुलामी को अपनी नियति मान लेती है|
शादी ब्याह के इस पुरुषप्रधान रस्मो रिवाज के खिलाफ आवाज़ उठाते कम ही देखा जाता है और जब उठती है तो वो भी केवल एक रस्म अदायगी भर ही हुआ करती है |
हाँ यह अवश्य देखा गया है की महिलाएं आवाज़ उठाती है मोर्चा निकालती हैं मर्द औरत की बराबरी के नाम पे और डिमांड होती है कपड़ों को पहनने की आज़ादी की, शादी के पहले शारीरिक संबंधो की आजादी की और इस डिमांड में कामयाबी भी मिली है जिसे आज हर शहर के बाजारों और हर इश्तेहार के पोस्टरों पे देखा और महसूस किया जा सकता है |
दहेज़ के खिलाफ भी आवाज़ बहुत उठती है लेकिन आज तक उसका असर समाज में देखा नहीं गया क्यूँ ?
क्यूँ की इस पुरुष प्रधान समाज में पुरुष की मर्जी से ही सब कुछ होता है | उसे दहेज़ लेना है, उसे औरत के साथ समझौते की जगह, बराबरी की जगह एक आज्ञा पालन करने वाली गुलाम चाहिए होती है | उसी प्रकार सडको पे परदे में घूमती महिला भी पुरुषों को नहीं भाति , उसे भी पोस्टरों पे अर्धनग्न लड़कियां देखना पसंद आता है इसीलिए महिलाओं की यह डिमांड पूरी होते हर जगह देखी जा सकती है |
आज पोर्न फिल्म का व्यपार क्यूँ फल फूल रहा है ? फिल्मो में नग्न अर्धनग्न हेरोइन डांस क्यूँ करती है ?
क्यूँ पुरुष उसे देख के सीटी बजाते हैं , खुश होते हैं और अपनी आँखें सेंकते हैं ? यह बात समझ में सभी के आती है | तो फिर ऐसे लोग क्यूँ नहीं चाहेंगे की महिलाएं सड़कों पे भी वैसी ही नज़र आनी चाहिए जैसी फिल्मो में दिखती हैं|
सारांश यह है की इस पुरुषप्रधान समाज ने महिला को भोग की वस्तु मान लिया है कभी वो कानून बनाता है महिलाओं के शरीर से वस्त्र कम करने के जिसे आज़ादी का नाम दे के महिलाओं को गुमराह किया जाता है तो कभी कानून बनाता है लड़की की शादी के साथ २0-३० लाख के दहेज़ लाने के लिए तो कभी कानून बनाता है माहिला को शादी के बाद उनकी आजादी छीन के गुलाम बनाने के लिए |
और माहिलाएं इसे अपनी नियति मान लेती हैं या इसी को अपनी आजादी समझने की भूल करते हुए अपने वजूद को खो देती हैं |
कभी कभी तो ऐसा लगता है यह माहिला आज़ाद होना ही नहीं चाहती वरना एक बार तय कर ले नहीं बनना भोग की वस्तु, नहीं बेचना अपनी आजादी ब्याह के नाम पे, नहीं बनना बोझ दहेज़ के नाम पे अपने माता पिता के ऊपर और फिर देखे, वो अपनी पति के घर भी खुद को उतना ही आज़ाद और खुशहाल महसूस करेगी जितना वो अपने माता पिता के घर पे महसूस करती थी और उतना ही सेफ खुद को वो सड़कों पे महसूस करेगी जितना वो अपने घर पे किया करती है |
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