सबसे पहले तो इस अन्तरराष्ट्रीय महिला दिवस के बारे में कुछ जानकारियां देता चलूँ | अमेरिका में सोशलिस्ट पार्टी के आवाहन, यह दिवस सबसे ...
सबसे पहले तो इस अन्तरराष्ट्रीय महिला दिवस के बारे में कुछ जानकारियां देता चलूँ | अमेरिका में सोशलिस्ट पार्टी के आवाहन, यह दिवस सबसे पहले सबसे पहले यह २८ फरवरी १९०९ में मनाया गया। इसके बाद यह फरवरी के आखरी इतवार के दिन मनाया जाने लगा। जुलियन कैलेंडर के मुताबिक १९१७ की फरवरी का आखरी इतवार २३ फरवरी को था जब की ग्रेगेरियन कैलैंडर के अनुसार उस दिन ८ मार्च थी। इस समय पूरी दुनिया में (यहां तक रूस में भी) ग्रेगेरियन कैलैंडर चलता है।
इसी लिये ८ मार्च, महिला दिवस के रूप में मनाया जाने लगा। दुनिया के लगभग २० मुल्कों में यह दिन एक आधिकारिक अवकाश है। इनमे से कुछ ये मुल्क हैं |
अफ़ग़ानिस्तान, अंगोला, आर्मेनिया,आज़रबाइजान, बेलारूस, बुर्किना फासो, कंबोडिया, चीन (केवल महिलाओं के लिए),क्यूबा, जॉर्जिया, गिन्नी - बिसाउ, इरीट्रिया, कजाखस्तान, किर्गिस्तान, लाओस, मकदूनिया (केवल महिलाओं के लिए), मडागास्कर (केवल महिलाओं के लिए), माल्डोवा, मंगोलिया, नेपाल (केवल महिलाओं के लिए), रूस,ताजीकिस्तान, तुर्कमेनिस्तान, यूगांडा, यूक्रेन, उज़्बेकिस्तान, वियतनाम| यह बात और है की इन मुल्कों में महिलाओं के अधिकार कम और उनका इस्तेमाल अधिक किया जाता रहा है क्यूँ की इस महिला दिवस की शुरुआत ही राजनितिक कारणों से हुयी थी ना की महिलाओं हित देखते हुए की गयी थी |
यह इत्तेफाक की बात है की इसी दिन 8 मार्च को मशहूर शायर साहिर लुध्यान्वी का भी जन्म दिन है | इसलिए आज उन्ही के शब्दों में महिलाओं के हॉट की बात करता चलूँ |
लोग औरत को फकत एक जिस्म समझ लेते हैं
रूह भी होती है उसमें ये कहाँ सोचते हैं ।
रूह क्या होती है, इससे उन्हें मतलब ही नहीं
वो तो बस तन के तक़ाज़ों का कहा मानते हैं
इस हकीकत समझते हैं, न पहचानते हैं ।
कितनी सदियों से ये वहसत का चलन जारी है
कितनी सदियों से है कायम, ये गुनाहों का रिवाज़
लोग औरत की हर चीख को नगमा समझे
वो कबीलों का जमाना हो, कि शहरों का समाज ।
जब्र से नस्ल बढ़े, जुल्म से तन मेल करे
ये अमल हमने है, बेइल्म परिंदों में नहीं
हम जो इंसानो की तहजीब लिए फिरते हैं
हम सा वहसी कोई जंगल के दरिंदो में नहीं ।
एक मैं ही नहीं, न जाने कितनी होंगी
जिनको अब आइना तकने से झिझक आती है
जिनके ख्वाबों में न सेहरे हैं, न सिन्दूर, न सेज
राख ही राख है, जो जेहन पे मंडळाती है ।
एक बुझी रूह, लुटे जिस्म के ढांचे में लिए
सोचती हूँ कि कहाँ जा के मुक्कदर फोडूं
मैं न जिन्दा हूँ कि मरने का सहारा ढूँढू
और न मुर्दा हूँ कि जीने के ग़मों से छूटूं ।
कौन बतलायेगा मुझको,किसे जाके पूंछूं
जिंदगी पहर के साँचो में ढलेगी कब तक
कब तलक आँख न खोलगा जमाने का ज़मीर
जुल्म और जब्र की ये रीत चलेगी कब तक ।
लोग औरत को फकत एक जिस्म समझ लेते है़ं|
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