बचपन से सुना और पढ़ा . मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है, समाज मैं रहने के लिए अच्छे चरित्र, शील, सद्व्यवहार, सदाचार आदि की आवश्यकता हुआ करती...
किसी भी समाज के स्थायित्व व वृद्धि तथा विकास के लिए कुछ नैतिक संहिताएं होती हैं. कुछ ऐसी मर्यादा कायम की जाती है जिसका उल्लंघन समस्याएं पैदा करता है.
आज कोई सड़कों पे किसी औरत को छेड़े , या कोई किसी को गाली दे कोई किसी को मार रहा हो, किसी पडोसी के यहाँ कोई बहुत बीमार हो जाए, कोई समाज मैं दुखी हो जाए, सब को लगता है, हम को क्या करना? यह कोई हमारे घर की परेशानी तो है नहीं? यही हमारे अकेलेपन का आज कारन भी है |
कुछ साल पहले मुंबई मैं बोरीवली स्टेशन पे भरे हुए महिला डिब्बे मैं एक औरत का बलात्कार हुआ और सब तमाशा देखते रहे. मुंबई मैं लोकल ट्रेन से प्रतिदिन ४०-५० तो गिर के या कट के मरते ही हैं लेकिन कोई गिरने वाले पास भी नहीं जाता. उनमें ऐसे बहुत से हुआ करते हैं, की अगर वक़्त पे अस्पताल पहुँच जाते तो बच जाते. इसके दो कारण है. एक तो हमारी आदत की समाज मैं कुछ भी हो जाए हम को क्या लेना देना और दूसरे यह भी की कहीं पुलिस ठाणे और कचहरी के भी चक्कर काटने पड़े?
एक समय था जब नौजवान कुछ गलत करते समय गली मोहल्ले के चाचा और मामाओं से भी डरता था, कहीं देख लिया तो यहीं डांट पड़ेगी और बात घर तक भी जाएगी. आज के सामाजिक चाचा मामा, से यह डर नहीं रहा. क्योंकि आज इन सामाजिक चाचाओं को इस बात कि चिंता नहीं कि उनके दोस्त का बेटा बिगड़ रहा है उसे रोको बल्कि उस इस बात कि चिंता अधिक है कि दोस्त का पडोसी का लड़का तरक्की कैसे कर रहा है, उसे रोको. सब अपनी दुनिया मैं मस्त हैं.
परिवारों और रिश्तेदारों मैं पहले पति पत्नी के साथ अत्याचार करते समय समाज से ,रिश्तेदारों से डरता था. एक भाई किसी दूसरे भाई का हक मारने से डरता था की रिश्तेदार उस से नाता तोड़ लेंगे. सामाजिक बहिष्कार और रिश्तेदारों का नाता तोड़ने के डर से बहुत से ज़ुल्म, नहीं हो पाते थे. आज ऐसा नहीं होता , लगता है कोई समाज रह ही नहीं गया है.
मुझे लगता है हम से क्या मतलब कह के हम गलत करने वालों का मनोबल ऊंचा कर रहे हैं और अपराध को बढावा दे रहे हैं . आज जो भी इस समाज मैं बुराइयाँ पैदा हो रही हैं, उसके कहीं ना कहीं चुप रह के तमाशा देखने के कारण भागीदार हम भी हैं. सभी धर्म मैं समाज से बुराई मिटाने और उसको रोकने की हिदायतें मोजूद हैं. लेकिन आज के लोगों को ने धर्म केवल अपने फाएदे के लिए इस्तेमाल करना बखूबी सीख लिया है.
कुरआन की सूर ए तौबा आयत ७१ मैं कहा गया है की नेक इंसान, एक दूसरे की अच्छे कामों मैं मदद करते हैं और बुराई से एक दूसरे को रोकते हैं. हम लड़ने के लिए तो धार्मिक हो जाते हैं लेकिन कुरान की हिदायतों को मानने के लिए तैयार नहीं.
बनी इस्राईल के ज़माने मैं एक इंसान अल्लाह की इबादत मैं मसरूफ था, कि उसकी नजर कुछ बच्चों पे पड़ी जो मुर्ग़े के पर को उखाड़ रहे थे वो इंसान उन बच्चों को जानवर पे ज़ुल्म से रोके बग़ैर अपनी इबादत में लगा रहा. अल्लाह को यह बात इतनी बुरी लगी की उसपे अज़ाब (सजा) डाल दिया. अब अगर जानवरों पे ज़ुल्म किसी को करते देख चुप रहना अल्लाह को इतना बुरा लग सकता है तो इंसानों पे ज़ुल्म होते देख चुप रहने की क्या सजा हो सकती है?
ज़ुल्म बहुत तरह के हुआ करते हैं, किसी को भूखा देख, उसको खाना ना देना, किसी मजबूर का मज़ाक बनाना, समाज मैं हिंसा होते देख आवाज़ ना उठाना, समाज मैं अश्लीलता को चलने देना, सामाजिक रिश्तों की इज्ज़त ना करना इत्यादि .
यह हर इंसान कि ज़िम्मेदारी होती है कि समाज मैं किसी पे ज़ुल्म होते देखे तो उसकी मदद करे, सही मशविरा दे और एक दुसरे का मुश्किलों मैं साथ दे.
क्या हम सच मैं सामाजिक प्राणी हैं? क्या इस समाज के प्रति भी हमारी कुछ ज़िम्मेदारी है या जानवरों कि तरह खुद का पेट भर के आराम से सो जाने को ही हम अपना धर्म मान बैठे हैं.
इन सवालों के जवाब कि तलाश आवश्यक है.
बचपन से सुना और पढ़ा . मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है, समाज मैं रहने के लिए अच्छे चरित्र, शील, सद्व्यवहार, सदाचार आदि की आवश्यकता हुआ करती है. आज कोई सड़कों पे किसी औरत को छेड़े , या कोई किसी को गाली दे कोई किसी को मार रहा हो, किसी पडोसी के यहाँ कोई बहुत बीमार हो जाए, कोई समाज मैं दुखी हो जाए, सब को लगता है, हम को क्या करना? यह कोई हमारे घर की परेशानी तो है नहीं? यही हमारे अकेलेपन का आज कारन भी है |
कुछ साल पहले मुंबई मैं बोरीवली स्टेशन पे भरे हुए महिला डिब्बे मैं एक औरत का बलात्कार हुआ और सब तमाशा देखते रहे. मुंबई मैं लोकल ट्रेन से प्रतिदिन ४०-५० तो गिर के या कट के मरते ही हैं लेकिन कोई गिरने वाले पास भी नहीं जाता. उनमें ऐसे बहुत से हुआ करते हैं, की अगर वक़्त पे अस्पताल पहुँच जाते तो बच जाते. इसके दो कारण है. एक तो हमारी आदत की समाज मैं कुछ भी हो जाए हम को क्या लेना देना और दूसरे यह भी की कहीं पुलिस ठाणे और कचहरी के भी चक्कर काटने पड़े?
एक समय था जब नौजवान कुछ गलत करते समय गली मोहल्ले के चाचा और मामाओं से भी डरता था, कहीं देख लिया तो यहीं डांट पड़ेगी और बात घर तक भी जाएगी. आज के सामाजिक चाचा मामा, से यह डर नहीं रहा. क्योंकि आज इन सामाजिक चाचाओं को इस बात कि चिंता नहीं कि उनके दोस्त का बेटा बिगड़ रहा है उसे रोको बल्कि उस इस बात कि चिंता अधिक है कि दोस्त का पडोसी का लड़का तरक्की कैसे कर रहा है, उसे रोको. सब अपनी दुनिया मैं मस्त हैं.
परिवारों और रिश्तेदारों मैं पहले पति पत्नी के साथ अत्याचार करते समय समाज से ,रिश्तेदारों से डरता था. एक भाई किसी दूसरे भाई का हक मारने से डरता था की रिश्तेदार उस से नाता तोड़ लेंगे. सामाजिक बहिष्कार और रिश्तेदारों का नाता तोड़ने के डर से बहुत से ज़ुल्म, नहीं हो पाते थे. आज ऐसा नहीं होता , लगता है कोई समाज रह ही नहीं गया है.
मुझे लगता है हम से क्या मतलब कह के हम गलत करने वालों का मनोबल ऊंचा कर रहे हैं और अपराध को बढावा दे रहे हैं . आज जो भी इस समाज मैं बुराइयाँ पैदा हो रही हैं, उसके कहीं ना कहीं चुप रह के तमाशा देखने के कारण भागीदार हम भी हैं. सभी धर्म मैं समाज से बुराई मिटाने और उसको रोकने की हिदायतें मोजूद हैं. लेकिन आज के लोगों को ने धर्म केवल अपने फाएदे के लिए इस्तेमाल करना बखूबी सीख लिया है.
कुरआन की सूर ए तौबा आयत ७१ मैं कहा गया है की नेक इंसान, एक दूसरे की अच्छे कामों मैं मदद करते हैं और बुराई से एक दूसरे को रोकते हैं. हम लड़ने के लिए तो धार्मिक हो जाते हैं लेकिन कुरान की हिदायतों को मानने के लिए तैयार नहीं.
बनी इस्राईल के ज़माने मैं एक इंसान अल्लाह की इबादत मैं मसरूफ था, कि उसकी नजर कुछ बच्चों पे पड़ी जो मुर्ग़े के पर को उखाड़ रहे थे वो इंसान उन बच्चों को जानवर पे ज़ुल्म से रोके बग़ैर अपनी इबादत में लगा रहा. अल्लाह को यह बात इतनी बुरी लगी की उसपे अज़ाब (सजा) डाल दिया. अब अगर जानवरों पे ज़ुल्म किसी को करते देख चुप रहना अल्लाह को इतना बुरा लग सकता है तो इंसानों पे ज़ुल्म होते देख चुप रहने की क्या सजा हो सकती है?
ज़ुल्म बहुत तरह के हुआ करते हैं, किसी को भूखा देख, उसको खाना ना देना, किसी मजबूर का मज़ाक बनाना, समाज मैं हिंसा होते देख आवाज़ ना उठाना, समाज मैं अश्लीलता को चलने देना, सामाजिक रिश्तों की इज्ज़त ना करना इत्यादि .
यह हर इंसान कि ज़िम्मेदारी होती है कि समाज मैं किसी पे ज़ुल्म होते देखे तो उसकी मदद करे, सही मशविरा दे और एक दुसरे का मुश्किलों मैं साथ दे.
क्या हम सच मैं सामाजिक प्राणी हैं? क्या इस समाज के प्रति भी हमारी कुछ ज़िम्मेदारी है या जानवरों कि तरह खुद का पेट भर के आराम से सो जाने को ही हम अपना धर्म मान बैठे हैं.
इन सवालों के जवाब कि तलाश आवश्यक है.