दो इंसानों के नज़रिए का फर्क किसी भी मुद्दे पे होना एक आम बात है और वाद विवाद भी इसी अंतर के कारण हुआ करता है. हम मैं यह कमी है कि हम वह...
दो इंसानों के नज़रिए का फर्क किसी भी मुद्दे पे होना एक आम बात है और वाद विवाद भी इसी अंतर के कारण हुआ करता है. हम मैं यह कमी है कि हम वही दूसरे से भी सुनना चाहते हैं जो हमें सही लगता है और यही आगे जाके झगडे और आपसी रंजिश का कारण बनता है.
सबसे पहले तो यह समझना आवश्यक है कि यह अंतर हमारी सोंच मैं होता क्यों है? हर इंसान जब पैदा होता है तो उसे जो भी माहोल मिलता है वोह उसी मैं ढल जाता है. और उसे वही खान पान धर्म,त्यौहार इत्यादि पसंद आने लगते हैं जिनको वो बचपन से देखता आया है. दो इंसानों कि अक्ल भी एक जैसी नहीं होती और सोंचने समझने कि छमता भी एक जैसे नहीं हुआ करती. इसी लिए किसी बात को सुन के या चीज़ को देख के अलग अलग नतीजे निकाल लेता है और फिर उसी को सही समझता है.
हममें से जो अक़लमंद हैं वो हर विषय का सही विश्लेषण करते हैं और सत्य का ज्ञान प्राप्त कर लेते हैं. सत्य तक पहुँचने के लिए हमें क्रोध काम, इर्ष्या और लोभ का त्याग करना होता है और दिल कि जगह दिमाग से काम लेना होता है. जज्बाती इंसान , या गुस्से से काम लेने वाला इंसान कभी सही नतीजे पे नहीं पहुँच पाता चाहे उसकी नीयत मैं कोई खोट ना भी हो.
आज हमारे समाज मैं ऐसे बहुत से विषय हैं , आपसी फर्क हैं जिनके कारण अक्सर झगडे या व्यर्थ का वाद विवाद हुआ करता है. कभी धर्म और जाती का अंतर,कभी शहर, देश, गोरे काले, का अंतर और कभी हमारे विचारों का अंतर. जबकि सबसे बड़ा सत्य तो यह है कि हम सभी एक जैसे ही इंसान हैं. एक जैसा दर्द और एक जैसी ही ख़ुशी महसूस करते हैं. फिर भी एक दूसरे को आपस के छोटे छोटे अंतर के कारण ज़लील करते हैं, तकलीफ पहुंचाते हैं.
इस से अच्छी मिसाल क्या होगी कि हम अपनी बेटी को तो एक सुखी घर देना चाहते हैं लेकिन दूसरों कि बेटी (बहु) पे ज़ुल्म करते हैं. क्या इसे मुर्खता नहीं कहेंगे ? क्योंकि हम अगर अपनी बहु को भी सुख दे रहे होते तो आज किसी कि बेटी दुखी ना होती. ना कोई बहुत जलाई जाती ना घर से बिना कारण निकाली जाती.
इसी प्रकार हर इंसान से अपने जीवन मैं कभी ना कभी कोई ग़लती अवश्य होती है क्यों कि ग़लतियाँ इंसान ही करता है. यह हम है कि अपने जैसे दूसरे इंसान कि खूबिया और अच्छाइयां तलाशने कि जगह उसकी कमियाँ और ग़लतियाँ तलाशते है जिस से हम उसे ज़लील कर सकें ,उसे दूसरों कि नज़र मैं बुरा बना सकें.
यह भी हम इंसानों कि एक बड़ी मुखता है क्यों कि यदि हम किसी दूसरे कि कमियाँ और ग़लतियाँ तलाश के उसी ज़लील ना कर रहे होते तो कोई दूसरा हमारी कमियाँ और ग़लतियाँ तलाश के हमको भी ज़लील ना कर रहा होता.
कोई भी धर्म यदि ईश्वरीय है तो वोह समाज मैं नफरत फैलाने का सन्देश कभी नहीं देगा. यह हम इंसान हैं जो ग़लतियाँ करते हैं और बुरी आदतों को अपना लेते हैं, इस मैं हमारे धर्म का कोई दोष नहीं होता. तभी तो अल्लामा इकबाल ने कहाँ कि मज़हब नहीं सीखाता आपस मैं बैर रखना.
लेकिन यह हम हैं जो किसी कि इंसानी कमजोरी को देख कर उसके धर्म को ही निशाना बना लेते हैं और नतीजे मैं समाज मैं अशांति और नफरत फैलाते हैं.
यहाँ भी हम मुर्ख ही दिखते हैं क्योंकि बुराईयाँ तो हर इंसान मैं होती हैं, हम किसी कि बुराई को देख के उसके धर्म को निशाना बनाएंगे तो वोह हमारी बुराई को देख के हमारे धर्म को भी निशाना बनाएगा .नतीजे मैं हमारी गलतियों के कारण हम दोनों का धर्म बदनाम होगा और दोनों धर्म के बारे मैं समाज मैं गलतफहमियां फैलेंगी. आप किसी पे ज़ुल्म कर के, समाज मैं धर्म के नाम पे नफरत फैला कर यह पैगाम ना दें कि आप का धर्म ईश्वरीय नहीं है.
इसी प्रकार से हमारी बेवकूफियों के हजारों उदाहरण इस समाज मैं देखे जा सकते हैं .क्यों ना हम अक्लमंदी का परिचय देते हुए अपने जैसे दूसरे इंसान के दुःख दर्द तकलीफ को अपने दुःख दर्द जैसा ही समझें और समाज मैं शांति और भाईचारा काएम करें? ……स.म.मासूम
सबसे पहले तो यह समझना आवश्यक है कि यह अंतर हमारी सोंच मैं होता क्यों है? हर इंसान जब पैदा होता है तो उसे जो भी माहोल मिलता है वोह उसी मैं ढल जाता है. और उसे वही खान पान धर्म,त्यौहार इत्यादि पसंद आने लगते हैं जिनको वो बचपन से देखता आया है. दो इंसानों कि अक्ल भी एक जैसी नहीं होती और सोंचने समझने कि छमता भी एक जैसे नहीं हुआ करती. इसी लिए किसी बात को सुन के या चीज़ को देख के अलग अलग नतीजे निकाल लेता है और फिर उसी को सही समझता है.
हममें से जो अक़लमंद हैं वो हर विषय का सही विश्लेषण करते हैं और सत्य का ज्ञान प्राप्त कर लेते हैं. सत्य तक पहुँचने के लिए हमें क्रोध काम, इर्ष्या और लोभ का त्याग करना होता है और दिल कि जगह दिमाग से काम लेना होता है. जज्बाती इंसान , या गुस्से से काम लेने वाला इंसान कभी सही नतीजे पे नहीं पहुँच पाता चाहे उसकी नीयत मैं कोई खोट ना भी हो.
आज हमारे समाज मैं ऐसे बहुत से विषय हैं , आपसी फर्क हैं जिनके कारण अक्सर झगडे या व्यर्थ का वाद विवाद हुआ करता है. कभी धर्म और जाती का अंतर,कभी शहर, देश, गोरे काले, का अंतर और कभी हमारे विचारों का अंतर. जबकि सबसे बड़ा सत्य तो यह है कि हम सभी एक जैसे ही इंसान हैं. एक जैसा दर्द और एक जैसी ही ख़ुशी महसूस करते हैं. फिर भी एक दूसरे को आपस के छोटे छोटे अंतर के कारण ज़लील करते हैं, तकलीफ पहुंचाते हैं.
इस से अच्छी मिसाल क्या होगी कि हम अपनी बेटी को तो एक सुखी घर देना चाहते हैं लेकिन दूसरों कि बेटी (बहु) पे ज़ुल्म करते हैं. क्या इसे मुर्खता नहीं कहेंगे ? क्योंकि हम अगर अपनी बहु को भी सुख दे रहे होते तो आज किसी कि बेटी दुखी ना होती. ना कोई बहुत जलाई जाती ना घर से बिना कारण निकाली जाती.
इसी प्रकार हर इंसान से अपने जीवन मैं कभी ना कभी कोई ग़लती अवश्य होती है क्यों कि ग़लतियाँ इंसान ही करता है. यह हम है कि अपने जैसे दूसरे इंसान कि खूबिया और अच्छाइयां तलाशने कि जगह उसकी कमियाँ और ग़लतियाँ तलाशते है जिस से हम उसे ज़लील कर सकें ,उसे दूसरों कि नज़र मैं बुरा बना सकें.
यह भी हम इंसानों कि एक बड़ी मुखता है क्यों कि यदि हम किसी दूसरे कि कमियाँ और ग़लतियाँ तलाश के उसी ज़लील ना कर रहे होते तो कोई दूसरा हमारी कमियाँ और ग़लतियाँ तलाश के हमको भी ज़लील ना कर रहा होता.
कोई भी धर्म यदि ईश्वरीय है तो वोह समाज मैं नफरत फैलाने का सन्देश कभी नहीं देगा. यह हम इंसान हैं जो ग़लतियाँ करते हैं और बुरी आदतों को अपना लेते हैं, इस मैं हमारे धर्म का कोई दोष नहीं होता. तभी तो अल्लामा इकबाल ने कहाँ कि मज़हब नहीं सीखाता आपस मैं बैर रखना.
लेकिन यह हम हैं जो किसी कि इंसानी कमजोरी को देख कर उसके धर्म को ही निशाना बना लेते हैं और नतीजे मैं समाज मैं अशांति और नफरत फैलाते हैं.
यहाँ भी हम मुर्ख ही दिखते हैं क्योंकि बुराईयाँ तो हर इंसान मैं होती हैं, हम किसी कि बुराई को देख के उसके धर्म को निशाना बनाएंगे तो वोह हमारी बुराई को देख के हमारे धर्म को भी निशाना बनाएगा .नतीजे मैं हमारी गलतियों के कारण हम दोनों का धर्म बदनाम होगा और दोनों धर्म के बारे मैं समाज मैं गलतफहमियां फैलेंगी. आप किसी पे ज़ुल्म कर के, समाज मैं धर्म के नाम पे नफरत फैला कर यह पैगाम ना दें कि आप का धर्म ईश्वरीय नहीं है.
इसी प्रकार से हमारी बेवकूफियों के हजारों उदाहरण इस समाज मैं देखे जा सकते हैं .क्यों ना हम अक्लमंदी का परिचय देते हुए अपने जैसे दूसरे इंसान के दुःख दर्द तकलीफ को अपने दुःख दर्द जैसा ही समझें और समाज मैं शांति और भाईचारा काएम करें? ……स.म.मासूम