आज हम उस दौर मैं जी रहे हैं जहां अब ईमानदारी, सच्चाई , नसीहतें , उपदेश किताबी बातें बन के रह गयी हैं. आज जब इनकी बातें करो तो लोग वाह वाह त...
आज हम उस दौर मैं जी रहे हैं जहां अब ईमानदारी, सच्चाई , नसीहतें, उपदेश किताबी बातें बन के रह गयी हैं. आज जब इनकी बातें करो तो लोग वाह वाह तो कर देते हैं लेकिन यह बातें आज किसी को भी व्यावहारिक नहीं लगती. ऐसे ही धर्म के उपदेश सरों मैं अक्सर दर्द पैदा दिया करते हैं और धार्मिक किताबें तो केवल परेशानी के समय इश्वर को खुश करने के लिए ही पढी जाती हैं. . सवाल यह पैदा होता है की ऐसा क्यों है?
इसका एक ही कारण मेरे समझ मैं आता है की जब कोई शख्स इमानदारी से समाज मैं चलने की कोशिश करता है तो समाज मैं बेईमान की संख्या अधिक होने के कारण उसको नुकसान भी होता है और वोह बेवकूफ भी कहलाता है. इसलिए कोशिश समाज को बदलने की भी करना चाहिए. केवल खुद को बदल लेने से कुछ नहीं होगा.
मां निस्वार्थ प्रेम की सबसे बेहतर मिसाल है लेकिन यदि बुढ़ापे मैं सबसे दयनीय हालत किसी की होती है तो वो हैं बूढ़े माँ बाप की लेकिन माँ बाप अपनी ओलाद से प्रेम करना नहीं छोड़ते. आखिर क्यों?
जून २०१० मैं मैंने एक नज़्म पेश की थी माँ पे और जुलाई २०१० मैं मेरी माता जी का देहांत हो गया. माँ का चला जाना मेरे जीवन मैं एक ऐसा खालीपन छोड़ गया जो शायद कभी ना भरा जा सकेगा. वतन से दूर रहा मैं , साल मैं दो बार ही मां के पास जा पाता था इसलिए इस नज़्म के इन अल्फाजों की कीमत मैं समझ सकता हूँ.
घर से जब परदेस जाता है कोई नूर-ए-नज़र ।
हाथ में कुरान ले कर दर पे आ जाती है मां ॥
मुझे उस नज़्म के यह लव्ज़ बहुत पसंद आते हैं.क्योंकि मैंने अपने गाँव के मेले मैं यह नज़ारा खुद अपनी आख से देखा है.
जब खिलौने को मचलता है कोई गुरबत का फूल ।
आंसूओं के साज़ पर बच्चे को बहलाती है माँ
अपने आंचल से गुलाबी आंसुओं को पोंछ कर ।
देर तक गुरबत पे अपने अश्क बरसाती है माँ
आज जिनकी माँ जिंदा है वो खुशकिस्मत हैं और उनको चाहिए की अधिक से अधिक अपनी माँ की सेवा करें. आज का बहुत आम सी बात है शादी के बाद बेटे का अंदाज़ माँ बाप के लिए बदल जाना. मैंने तो ऐसी ओलाद भी देखी है जो अपनी ही माँ को हाथ से खींच के घर के बाहर निकाल देता है और यह काम ऐसे इंसान ने किया जिसको समाज एक नेक इंसान के रूप मैं पहचानता है .जब समाज के नेक और इज्ज़तदारों का यह हाल है तो नालायकों का क्या हाल होगा.
बड़े ही बदकिस्मत हैं वो लोग जो ऐसा सुलूक अपने माता पिता से किया करते हैं.
आप भी सोंच रहे होंगे की इतनी नसीहतें आज क्यों सुननी पड रही है? आज. बस यूंही एक नज़्म सुन रहा था और उसके अलफ़ाज़ हकीकत के इतने करीब थे की दिल चाहा , आप सब के साथ इसको बाँट लिया जाए , और शायद कोई ऐसा भी इसे पढले जिसको माँ बाप की इज्मत का , अहमियत का अंदाज़ा ना हो और वो अपने माँ बाप को वो जगह दे जाए जो उनका हक है. याद रहे जैसा अपने माँ बाप के साथ बर्ताव करोगे वैसा ही अपनी ओलाद से पाओगे. इस्लाम में भी अल्लाह के बाद अगर किसी की इज्ज़त की बात की गयी है तो वोह हैं वालदैन (माँ बाप) की .
पेश है वो नज़्म जिसे आप सुन भी सकते हैं..
जब तू पैदा हुआ कितना मजबूर था
यह जहाँ तेरी सोचो से भी दूर था
हाथ पांव भी तब तेरे अपने न थे
तेरी आँखों मैं दुनिया के सपने न थे
तुझ को आता था जो सिर्फ रोना ही था
दूध पे के काम तेरा सोना ही था
तुझ को चलना सिखाया था माँ ने तेरी
तुझ को दिल मैं बसाया था माँ ने तेरी
माँ के साये मैं परवान चलने लगा
वक़्त के साथ क़द तेरा बढ़ने लगा
आहिस्ता आहिस्ता तू करियल जवान हो गिया
तुझ पे सारा जहाँ मेहरबान हो गिया
जोर -इ -बाजू पे तू बात करने लगा
खुद ही सजने लगा खुद ही संवरने लगा
एक दिन एक हसीना तुझे भा गयी
बन के दुल्हन वोह तेरे घर आ गयी
फ़र्ज़ अपने से तू दूर होने लगा
बीज नफरत का खुद ही तू बोने लगा
फिर तू माँ बाप को भी भुलाने लगा
तीर बातो के फिर तू चलाने लगा
बात बे बात उन् से तू लड़ने लगा
कायदा इक नया तू फिर पड़ने लगा
याद कर तुझ से मान ने कहा इक दिन
अब्ब हमारा गुज़ारा नहीं तेरे बिन
सुन्न के यह बात तू तेष मैं आ गया
तेरा गुस्सा तेरी अक़ल को खा गया
जोश मैं आके तू ने यह माँ से कहा
मैं था खामोश सब देखता ही रहा
आज कहता हूँ पीछा मेरा छोड़ दो
जो है रिश्ता मेरा तुम से वोह तोर दो
जाओ जा के कहीं काम धंदा करो
लोग मरते हैं तुम भी कहीं जा मरो
बैठ कर आहें भरते थे वोह रात भर
इनकी आहों का तुझ पर होवा न असर
एक दिन बाप तेरा चला रूठ कर
केसे बिखरी थी फिर तेरी मान टूट कर
फिर वोह बे बस अजल को भूलती रही
ज़िन्दगी इसको हर रोज़ सताती रही
एक दिन मौत को भी तरस आ गया
इसका रोना भी तकदीर को भा गिया
अश्क आँखों मैं लिए वोह रवाना होवी
मौत की एक हिचकी बहाना होवी
इक सुकून इस के चेहरे पे छाने लगा
फिर तू मय्यत को इसकी सजाने लगा
मुद्दतें हो गयी आज बूढ़ा है तू
जो पड़ा टूटी खटिया पे कूड़ा है तू
तेरे बच्चे भी अब्ब तुझ से डरते नहीं
नफरतें हैं मुहब्बत वोह करते नहीं
दर्द मैं तू पुकारे के ओ मेरी माँ
तेरे दम से रोशन थे दोनों जहाँ
वक़्त चलता रहे वक़्त रुकता नहीं
टूट जाता है वोह जो के झुकता नहीं
बन्न के इबरत का तू अब निशान रह गया
ढूंढ जोर तेरा कहाँ रह गया
तू एहकाम -इ -रब्बी भूलता रहा
अपने माँ बाप को तू सताता रहा
काट ले तू वोही तू ने बोया था जो
तुझ को केसे मिले तू ने खोया था जो
याद कर के गया दूर रोने लगा
कल जो तू ने किया आज होने लगा
मौत मांगे तुझे मौत आती नहीं
माँ की सूरत निगाहों से जाती नहीं
तू जो खांसे तो औलाद डांटे तुझे
तू है नासूर सुख कौन बांटे तुझे
मौत आयेगी तुझ को मगर वक़्त पर
बन ही जाये गी क़ब्र तेरी वक़्त पर
कद्र माँ बाप की अगर कोई जान ले
अपनी जन्नत को दुनिया मैं पहचान ले
और लेता रहे वोह बड़ो की दुआ
इस के दोनों जहाँ, इसका का हामी खुदा.
जब भी मैं किसी मां बाप को बुढ़ापे में अकेले पन में ही जीते देखता हूँ तो सोंचता हूँ की क्या यह वही माँ बाप है जो जवानी में अपनी औलाद के लिए जिया करते थे .जीवन की तीन अवस्थाओं बाल, युवा और वृद्धाव्स्था में जिस अवस्था मे जैसा कर्म किया जाता है, उसी अवस्था में उसके फ़ल को भोगना पडता है.
दे कर बच्चे को ज़मानत में रज़ा-ए-पाक की ।
पीछे पीछे सर झुकाए दूर तक जाती है मां ॥
कांपती आवाज़ से कहती है "बेटा अलविदा" ।
सामने जब तक रहे हाथों को लहराती है मां ॥
जब परेशानी में घिर जाते हैं हम कभी परदेस में ।
आंसुओं को पोछने ख्वाबों में आ जाती है मां ॥
इसका एक ही कारण मेरे समझ मैं आता है की जब कोई शख्स इमानदारी से समाज मैं चलने की कोशिश करता है तो समाज मैं बेईमान की संख्या अधिक होने के कारण उसको नुकसान भी होता है और वोह बेवकूफ भी कहलाता है. इसलिए कोशिश समाज को बदलने की भी करना चाहिए. केवल खुद को बदल लेने से कुछ नहीं होगा.
मां निस्वार्थ प्रेम की सबसे बेहतर मिसाल है लेकिन यदि बुढ़ापे मैं सबसे दयनीय हालत किसी की होती है तो वो हैं बूढ़े माँ बाप की लेकिन माँ बाप अपनी ओलाद से प्रेम करना नहीं छोड़ते. आखिर क्यों?
जून २०१० मैं मैंने एक नज़्म पेश की थी माँ पे और जुलाई २०१० मैं मेरी माता जी का देहांत हो गया. माँ का चला जाना मेरे जीवन मैं एक ऐसा खालीपन छोड़ गया जो शायद कभी ना भरा जा सकेगा. वतन से दूर रहा मैं , साल मैं दो बार ही मां के पास जा पाता था इसलिए इस नज़्म के इन अल्फाजों की कीमत मैं समझ सकता हूँ.
घर से जब परदेस जाता है कोई नूर-ए-नज़र ।
हाथ में कुरान ले कर दर पे आ जाती है मां ॥
मुझे उस नज़्म के यह लव्ज़ बहुत पसंद आते हैं.क्योंकि मैंने अपने गाँव के मेले मैं यह नज़ारा खुद अपनी आख से देखा है.
जब खिलौने को मचलता है कोई गुरबत का फूल ।
आंसूओं के साज़ पर बच्चे को बहलाती है माँ
अपने आंचल से गुलाबी आंसुओं को पोंछ कर ।
देर तक गुरबत पे अपने अश्क बरसाती है माँ
आज जिनकी माँ जिंदा है वो खुशकिस्मत हैं और उनको चाहिए की अधिक से अधिक अपनी माँ की सेवा करें. आज का बहुत आम सी बात है शादी के बाद बेटे का अंदाज़ माँ बाप के लिए बदल जाना. मैंने तो ऐसी ओलाद भी देखी है जो अपनी ही माँ को हाथ से खींच के घर के बाहर निकाल देता है और यह काम ऐसे इंसान ने किया जिसको समाज एक नेक इंसान के रूप मैं पहचानता है .जब समाज के नेक और इज्ज़तदारों का यह हाल है तो नालायकों का क्या हाल होगा.
बड़े ही बदकिस्मत हैं वो लोग जो ऐसा सुलूक अपने माता पिता से किया करते हैं.
आप भी सोंच रहे होंगे की इतनी नसीहतें आज क्यों सुननी पड रही है? आज. बस यूंही एक नज़्म सुन रहा था और उसके अलफ़ाज़ हकीकत के इतने करीब थे की दिल चाहा , आप सब के साथ इसको बाँट लिया जाए , और शायद कोई ऐसा भी इसे पढले जिसको माँ बाप की इज्मत का , अहमियत का अंदाज़ा ना हो और वो अपने माँ बाप को वो जगह दे जाए जो उनका हक है. याद रहे जैसा अपने माँ बाप के साथ बर्ताव करोगे वैसा ही अपनी ओलाद से पाओगे. इस्लाम में भी अल्लाह के बाद अगर किसी की इज्ज़त की बात की गयी है तो वोह हैं वालदैन (माँ बाप) की .
पेश है वो नज़्म जिसे आप सुन भी सकते हैं..
जब तू पैदा हुआ कितना मजबूर था
यह जहाँ तेरी सोचो से भी दूर था
हाथ पांव भी तब तेरे अपने न थे
तेरी आँखों मैं दुनिया के सपने न थे
तुझ को आता था जो सिर्फ रोना ही था
दूध पे के काम तेरा सोना ही था
तुझ को चलना सिखाया था माँ ने तेरी
तुझ को दिल मैं बसाया था माँ ने तेरी
माँ के साये मैं परवान चलने लगा
वक़्त के साथ क़द तेरा बढ़ने लगा
आहिस्ता आहिस्ता तू करियल जवान हो गिया
तुझ पे सारा जहाँ मेहरबान हो गिया
जोर -इ -बाजू पे तू बात करने लगा
खुद ही सजने लगा खुद ही संवरने लगा
एक दिन एक हसीना तुझे भा गयी
बन के दुल्हन वोह तेरे घर आ गयी
फ़र्ज़ अपने से तू दूर होने लगा
बीज नफरत का खुद ही तू बोने लगा
फिर तू माँ बाप को भी भुलाने लगा
तीर बातो के फिर तू चलाने लगा
बात बे बात उन् से तू लड़ने लगा
कायदा इक नया तू फिर पड़ने लगा
याद कर तुझ से मान ने कहा इक दिन
अब्ब हमारा गुज़ारा नहीं तेरे बिन
सुन्न के यह बात तू तेष मैं आ गया
तेरा गुस्सा तेरी अक़ल को खा गया
जोश मैं आके तू ने यह माँ से कहा
मैं था खामोश सब देखता ही रहा
आज कहता हूँ पीछा मेरा छोड़ दो
जो है रिश्ता मेरा तुम से वोह तोर दो
जाओ जा के कहीं काम धंदा करो
लोग मरते हैं तुम भी कहीं जा मरो
बैठ कर आहें भरते थे वोह रात भर
इनकी आहों का तुझ पर होवा न असर
एक दिन बाप तेरा चला रूठ कर
केसे बिखरी थी फिर तेरी मान टूट कर
फिर वोह बे बस अजल को भूलती रही
ज़िन्दगी इसको हर रोज़ सताती रही
एक दिन मौत को भी तरस आ गया
इसका रोना भी तकदीर को भा गिया
अश्क आँखों मैं लिए वोह रवाना होवी
मौत की एक हिचकी बहाना होवी
इक सुकून इस के चेहरे पे छाने लगा
फिर तू मय्यत को इसकी सजाने लगा
मुद्दतें हो गयी आज बूढ़ा है तू
जो पड़ा टूटी खटिया पे कूड़ा है तू
तेरे बच्चे भी अब्ब तुझ से डरते नहीं
नफरतें हैं मुहब्बत वोह करते नहीं
दर्द मैं तू पुकारे के ओ मेरी माँ
तेरे दम से रोशन थे दोनों जहाँ
वक़्त चलता रहे वक़्त रुकता नहीं
टूट जाता है वोह जो के झुकता नहीं
बन्न के इबरत का तू अब निशान रह गया
ढूंढ जोर तेरा कहाँ रह गया
तू एहकाम -इ -रब्बी भूलता रहा
अपने माँ बाप को तू सताता रहा
काट ले तू वोही तू ने बोया था जो
तुझ को केसे मिले तू ने खोया था जो
याद कर के गया दूर रोने लगा
कल जो तू ने किया आज होने लगा
मौत मांगे तुझे मौत आती नहीं
माँ की सूरत निगाहों से जाती नहीं
तू जो खांसे तो औलाद डांटे तुझे
तू है नासूर सुख कौन बांटे तुझे
मौत आयेगी तुझ को मगर वक़्त पर
बन ही जाये गी क़ब्र तेरी वक़्त पर
कद्र माँ बाप की अगर कोई जान ले
अपनी जन्नत को दुनिया मैं पहचान ले
और लेता रहे वोह बड़ो की दुआ
इस के दोनों जहाँ, इसका का हामी खुदा.
दे कर बच्चे को ज़मानत में रज़ा-ए-पाक की ।
पीछे पीछे सर झुकाए दूर तक जाती है मां ॥
कांपती आवाज़ से कहती है "बेटा अलविदा" ।
सामने जब तक रहे हाथों को लहराती है मां ॥
जब परेशानी में घिर जाते हैं हम कभी परदेस में ।
आंसुओं को पोछने ख्वाबों में आ जाती है मां ॥
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