पेश के खिदमत है "अमन के पैग़ाम पे सितारों की तरह चमकें की सत्ताईसवीं और नव वर्ष २०११ की पहली पेशकश .. संगीता पुरी जी. पोस्ट-ग्र...
पेश के खिदमत है "अमन के पैग़ाम पे सितारों की तरह चमकें की सत्ताईसवीं और नव वर्ष २०११ की पहली पेशकश ..संगीता पुरी जी.
बात पिछले नवरात्र की है , मेरी छोटी बहन को कंजिका पूजन के लिए कुछ बच्चियों की जरूरत थी। इन दिनों में कंजिका ओं की संख्या कम होने के कारण मांग काफी बढ़ जाती है। मुहल्ले के सारे घरों में घूमने से तो अच्छा है , किसी स्कूल से बच्चियां मंगवा ली जाएं। यही सोंचकर मेरी बहन ने मुहल्ले के ही नर्सरी स्कूल की शिक्षिका से लंच ब्रेक में कक्षा की सात बच्चियों को उसके यहां भेज देने को कहा। उस वक्त मेरी बहन की बच्ची बब्बी भी उसी स्कूल में नर्सरी की छात्रा थी। शिक्षिका को कहकर वह घर आकर वह अष्टमी की पूजा की तैयारी में व्यस्त हो गयी।
अभी वह पूजा में व्यस्त ही थी कि दोपहर में छह बच्चियों के साथ बब्बी खूब रोती हुई घर पहुंची। मेरी बहन घबडायी हुई बाहर आकर उसे चुप कराते हुए रोने का कारण पूछा। उसने बतलाया कि उसकी मैडम ने उसकी एक खास दोस्त हेमा को यहां नहीं आने दिया। वह सुबक सुबक कर रो रही थी और कहे जा रही थी, 'मेरे ही घर की पार्टी , मैने घर लाने के लिए हेमा का हाथ भी पकडा , पर मैडम ने मेरे हाथ से उसे छुडाते हुए कहा ,'हेमा नहीं जाएगी'। वो इतना रो रही थी कि बाकी का कार्यक्रम पूरा करना मेरी बहन के लिए संभव नहीं था।
वह सब काम छोडकर बगल में ही स्थित उस स्कूल में पहूंची। उसके पूछने पर शिक्षिका ने बताया कि हेमा मुस्लिम है , हिंदू धर्म से जुडे कार्यक्रम की वजह से आपके या हेमा के परिवार वालों को आपत्ति होती , इसलिए मैने उसे नहीं भेजा। मेरी बहन भी किंकर्तब्यविमूढ ही थी कि उसके पति कह उठे, 'पूजा करने और प्रसाद खिलाने का किसी धर्म से क्या लेना देना, उसे बुला लो।' मेरी बहन भी इससे सहमत थी , पर हेमा के मम्मी पापा को कहीं बुरा न लग जाए , इसलिए उनकी स्वीकृति लेना आवश्यक था। संयोग था कि हेमा के माता पिता भी खुले दिमाग के थे और उसे इस कार्यक्रम में हिस्सा लेने की स्वीकृति मिल गयी।
बहन जब हेमा को साथ लेकर आयी , तो बब्बी की खुशी का ठिकाना न था। उसने फिर से अपनी सहेली का हाथ पकडा , उसे बैठाया और पूजा होने से लेकर खिलाने पिलाने तक के पूरे कार्यक्रम के दौरान उसके साथ ही साथ रही। इस पूरे वाकये को सुनने के बाद मैं यही सोंच रही थी कि रोकर ही सही , एक 4 वर्ष की बच्ची अपने दोस्त के लिए , उसे अधिकार दिलाने के लिए प्रयत्नशील रही। छोटी सी बच्ची के जीवन में धर्म का कोई स्थान न होते हुए भी उसने अपने दोस्ती के धर्म का पालन किया। बडों को भी सही रास्ते पर चलने को मजबूर कर दिया। और हम धर्म को मानते हुए भी मानवता के धर्म का पालन नहीं कर पाते। ऐसी घटनाओं को सुनने के बाद हम तो यही कह सकते हैं कि काश हम भी बच्चे ही होते !!
काश हम बच्चे ही होते .. धर्म के नाम पर तो न लडते !!..संगीता पुरी
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