पेश ए खिदमत है "अमन के पैग़ाम पे सितारों की तरह चमकें" की २५वी पेशकश ….रेखा श्रीवास्तव जी इंसान मे...
पेश ए खिदमत है "अमन के पैग़ाम पे सितारों की तरह चमकें" की २५वी पेशकश ….रेखा श्रीवास्तव जी
इंसान में दम तोड़ते जमीर के लिए
क्या कोई कोरामीन बनी है कि नहीं.
कोई तो इनको एक खुराक दे दो,
इंसानियत की उम्र बहुत बड़ी होती है.
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अमन की राह में रोड़े तो हैं लेकिन अगर हम मिलकर इन्हें धूल बनाना चाहे तो ये नामुमकिन नहीं है. ऐसा नहीं है कि हम अमन के दुश्मन से परिचित नहीं है फिर हम चुपचाप उनको सहते रहते हैं आखिर कब तक इनको सहा जायेगा. जन्म से मृत्यु तक कि प्रक्रिया हर इंसान में एक जैसी होती है - हाँ अगर कुछ अलग होता है तो वह उसकी सोच और यही सोच उसे इंसान , इंसानियत अमन और प्रेम का दुश्मन बना देती है.
अरे अगर हम मनुज शरीर लेकर आये हैं तो उसका ऐसा उपयोग करें कि हम किसी को कुछ दे न सकें तो उनसे कुछ हरें तो नहीं. उन्हें चैन और सुकून की जिन्दगी जीने दें , जो इस तरह से जीना चाहते हैं. फिर ये सवाल भी उठता है कि क्यों नहीं सभी इस चैन और अमन की हिमायत करते हैं. अपनी शक्ति, बुद्धि और समृद्धि का प्रयोग ऐसे करें कि मन को सुकून मिले -- उससे कोई दुखी हुआ तो फिर हमारे बुद्धिमान और चिन्तक होने का पर्याय क्या है? अगर हम ऐसे काम अपनी किसी हवस के पूरे करने के लिए करते हैं तो फिर हम मानव ही कहाँ हुए? ये हवस पैसे , रुतबा, या फिर लोगों में दहशत बनाने के लिए हो सकती है. कुछ लोग अपनी इस हवस को पूरी करने के लिए कुछ भी कर सकते हैं. हम अपनी सोच और जमीर को चंद पैसों के लिए गिरवी रखकर अमन और चैन का सौदा तक कर डालते हैं - तब क्यों नहीं ऐसे इंसान ये सोचते हैं कि इससे सुकून खुद को भी नहीं मिलने वाला .
इंसान बुरा पैदा नहीं होता है उसको बुरा बनाते हैं उसके हालात या फिर उसको बरगलाने वाले लोग. फिर एक बार काजल कि कोठारी में घुस गए तो फिर उससे निकलना आसान नहीं होता. जिसके लिए अमन और चैन को बर्बाद करने का सौदा किये बैठे हैं ये लोग - वे खुद अपना चैन और अमन खो बैठते हैं. हम सोचते हैं कि वे सुखी होंगे लेकिन नहीं वे अपने घर और घर वालों से मिलने के लिए तरसते हैं. घर के एक इंसान भी अगर अमनपसंद है तो फिर उसके लिए हमेशा के लिए बुरे ही बन जाते हैं. कभी इनके कामों की वजह से घर वाले जलील किये जाते हैं. दूसरों को इस विभीषिका में झोंकने वाले कभी खुद भी चैन से नहीं रह पाते हैं. घर औरों के जलाते हैं और वजह गर वे हुए तो सपनों में अपने घर के जलाने के डर से वे भयभीत रहते हैं. चैन की नीद तक उनके नसीब नहीं होती. अमन के बिना दहशत में जीने वाले जो बददुआ देंगे वो कभी खाली नहीं जाती और फिर उसका हश्र क्या होगा? ये कभी सोचा है - अगर नहीं सोचा है तो सोच लें , आज नहीं तो कल इसके अंजाम से दो चार तो होना ही पड़ेगा क्योंकि बुराई कि उम्र बहुत अधिक नहीं होती. इस लिए सब अमन कि सोचें और इंसान बनकर अमन से रहें और रहने दें.
इसके लिए चंद लाइने ये हो सकती हैं.
इंसानियत की उम्र बहुत बड़ी होती है
……रेखा श्रीवास्तव
इंसान में दम तोड़ते जमीर के लिए
क्या कोई कोरामीन बनी है कि नहीं.
कोई तो इनको एक खुराक दे दो,
……रेखा श्रीवास्तव
मैं आई आई टी , कानपूर में मशीन अनुवाद प्रोजेक्ट में कार्य कर रही हूँ. इस दिशा में हिंदी के लिए किये जा रहे प्रयासों से वर्षों से जुड़ी हूँ. लेखन मेरा सबसे प्रिय और पुरानी आदत है. आदर्श और सिद्धांत मुझे सबसे मूल्यवान लगते हैं , इनके साथ किसी प्रकार का समझौता नहीं किया जा सकता है. गलत को सही दिशा का भान कराना मेरी मजबूरी है , वह बात और है कि मानने वाला उसको माने या न माने. सच को लिखने में कलम संकोच नहीं करती.
http://katha-saagar.blogspot.com
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