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अपने जैसा बना लेने का शौक़ भी बिगड़ते रिश्तों का कारण

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आप के सामने अमन का पैग़ाम एक बार फिर से हाज़िर है. अमन का पैग़ाम का मकसद समाज की उन कमियों  को सामने लाना है, जिनके कारण एक इंसान दूसरे इंस...

आप के सामने अमन का पैग़ाम एक बार फिर से हाज़िर है. अमन का पैग़ाम का मकसद समाज की उन कमियों  को सामने लाना है, जिनके कारण एक इंसान दूसरे इंसान के करीब नहीं जा पाता. अक्सर मुझसे सवाल किया करते हैं आप का धर्मों के बारे मैं क्या नजरिया है? चलिए आज दो चार शब्द इस विषय पे पहले कह देता हूँ  “ मैं किसी दुसरे के धर्म की कमियां या बुराइयां निकालने के खिलाफ हमेशा रहा क्यों की यही बात दो इंसानों के दिलों मैं दूरियां बढाती हैं. जब भी मैं किसी से मिलता हूँ तो हिन्दू, मुसलमान या ईसाई से नहीं मिलता बल्कि अपने जैसे एक इंसान से मिलता हूँ. नफरत को प्रेम से ख़त्म करने मैं विश्वास रखता हूँ. नफरत के बदले नफरत का नतीजा हमेशा अशांति ही हुआ करता है.धर्म इंसान का जाती मसला है और परमात्मा ने हर एक को अक्ल  भी दी है, की उसे क्या खाना है, कहां रहना है और कौन सा धर्म मानना है. इसमें कोई  ज़बरदस्ती मुमकिन नहीं और अगर ज़बरदस्ती की जाए तो अंजाम नफरत ही हुआ करता है.   किसी व्यक्ति विशेष से मैं दूरी नहीं रखता क्योंकि दूरी किसी की बुराईयों  से  रखी जाती है, किसी व्यक्ति विशेष से नहीं. मैं  हज़रत अली (ए.स) की इस  बात पे अमल किया करता हूँ की " यह ना देखो कौन कह रहा है, बल्कि यह देखो की क्या कह रहा है.मैं मुसलमान हूँ इसलिए इस्लाम का सहारा लेता हूँ शांति सदेश देने के लिए यदि मैं किसी और धर्म को मानने वाला होता तो उसका सहारा ले रहा  होता , लेकिन देता यही शांति सन्देश. कुछ लेख मुझे ऐसे मिले हैं जिसमें लिखने वाले ने यह ध्यान मैं रेख के लिखा है, की वोह एक मुसलमान को भेज रहे हैं. मेरा निवेदन है ऐसा न करें.लेख़ सत्य पे आधारित हो और उसका मकसद समाज मैं अमन और शांति काएम करना हो.. अमन का पैग़ाम एक निष्पछ ब्लॉग है क्योंकि  पछ्पात कभी समाज मैं शांति काएम नहीं कर सकता. अमन के पैग़ाम पे हर इंसान को आज़ादी है की अपने दिल की बात इमानदारी से रखे और यदि कोई भी शक हो, कोई भी ग़लत पैग़ाम दिखाई दे , ग़लत टिप्पणी मिले तुरंत वहीं पे अपनी बात रख दें.  इस से हमें अपने इस अमन के पैग़ाम को और प्रभावशाली बनाने मैं सहायता मिलेगी, जिसका फाएदा पूरे समाज को होगा.

हमारी सबसे बड़ी ग़लती यह है की हम इस समाज मैं जिस से मिलते हैं उसको अपने जैसा बना लेना चाहते हैं और जो अपने जैसा ना बन सके या बनने से इनकार करदे , उसको  हम पसंद नहीं करते . हमारी यह भी आदत  है की जिसको हम पसंद नहीं करते उसके बारे मैं वोह बुराइयां भी समाज मैं फैला दिया करते हैं जो उसमें नहीं मोजूद हुआ करती और इसका  नतीजा दूरियां , नफरत, झगडे की सिवाए कुछ नहीं हुआ करता.

इस अपने जैसा बना लेने का शौक़ अक्सर हमको ऐसे दोस्त देता है जो वफादार नहीं होते और बाद मैं उस दोस्त को उसके धर्म को बुरा भला कहने लगते हैं. इस अपने जैसा बना लेने का शौक़ अक्सर हमें अक्सर बेवफा  पत्नियाँ या  पति भी दे दिया करता है और बाद मैं हम पछताते हैं.


सच्चा इंसान वही है जो अपने व्यक्तित्व से पहचाना जाए. हम जब भी किसी इंसान से मिलते हैं तो उसको खुश करने के लिए उसके जैसे बनने का नाटक करने लगते हैं जो बहुत दिनों तक चल भी नहीं पाता और नतीजा कुछ दिन की मुहब्बत के बाद दूरियां हुआ करती हैं. ऐसा इंसान जो आप से मिलने पे आप जैसा बनने की कोशिश करे, आप की हर एक बात से उनकी  सहमती होने लगे कभी आप के प्रति वफादार नहीं हो सकता.
अक्सर नौजवान लड़के और लडकियां  जब एक दूसरे की तरफ आकर्षित होते हैं, इस सत्य को झुठलाते हुए की कोई दो मनुष्य एक जैसे हो ही नहीं सकते , यह दिखाने की कोशिश करने लगते हैं की एक दोनों की पसंद एक है, दोनों की सोंच एक है इत्यादि इत्यादि और शादी के बाद जब एक दूसरे  की सही पसंद , सही सोंच का पाता  लगता है तो झूट और धोका देने के इलज़ाम के साथ दूरियां बढ़ना शुरू हो जाती हैं. झूट, फरेब के बीज बो के  वफादार वर-वधू की तलाश , का नतीजा तलाक के सिवाए कुछ नहीं हुआ करता है.

इसी प्रकार धर्म का भी मसला है. हम जब दूसरे धर्म वाले व्यक्ति से मिलते हैं तो हम ऐसा ज़ाहिर करते हैं जैसे उसके धर्म की सभी बातें हम भी मानते हैं और नतीजे  मैं एक नया मज़हब पैदा करने की कोशिश  करते हैं. हम भी ऐसे  व्यक्ति से ही खुश रहते हैं और कहते हैं देखो कितना अच्छा इंसान है, हमारे धर्म की बातों को भी मानता है. लेकिन ऐसे  रिश्ते बहुत दिन नहीं चला करते क्योंकि यह  फरेब  के सिवाए कुछ नहीं.. एक मुसलमान महिला पर्दा इसलिए नहीं करती  क्योंकि उसकी सहेली जो ग़ैर मुस्लिम है उसको पसंद नहीं, जबकि उसका धर्म कहता है पर्दा ग़ैर मर्द से करो . ऐसे ही एक शाकाहारी केवल इसलिए मांसाहारी बन जाता है क्योंकि उसके दोस्त मुसलमान हैं और उनके साथ रहना है. यह दोनों तरह के इंसान काबिल ए भरोसा नहीं हुआ करते. जो अपने धर्म का वफादार ना  हुआ वोह आपका या हमारा वफादार   क्या होगा?


हम हर इंसान को अपने ही धर्म पे क्यों देखना चाहते हैं? यह बात मेरी समझ मैं नहीं आत़ी? क्योंकि जब मजिल एक ही है, केवल रास्तों का फर्क है तो झगड़ा किस बात का? अपने धर्म के प्रति वफादार  रहो और दूसरों के धर्म की इज्ज़त करो यही शांति का रास्ता है.यह बात हमें नहीं भूलना चाहिए की पूरे विश्व में इंसानों का शोषण धर्मों के अंतर का फाएदा  उठाते हुए कुछ  चतुर लोगों द्वारा  जनसाधारण को  गुमराह और कई बार  आतंकित करके उनपर अपने मनोवैज्ञानिक शासन स्थापित करके हमेशा किया जाता रहा है. विश्व के सभी अभावग्रस्त लोग धर्मान्धता के कारण ही आज भी पिछड़े हैं और चतुर लोगों के चंगुल में शोषण के शिकार हो रहे हैं और इस्तेमाल हो रहे.



जिनलोगों का लेख़ “अमन के पैग़ाम” पे पेश हो चुका है या नए साल तक पेश होगा, उनका नाम  नए साल की पोस्ट मैं शामिल किया जाएगा और उस शांति सन्देश को कई अख़बारों मैं प्रकाशित करने की कोशिश भी की जाएगी. जिनके लेख़ अभी तक नहीं आए हैं वोह जल्द से जल्द अपने लेख़ , कविता , या ३-४ लाइन मैं शांति सन्देश भेज दें..FOLLOW करना न भूलें , वहीं से चित्र पेश किये जाएंगे.  धन्यवाद् ..एस एम् मासूम  

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S.M.MAsoom: अपने जैसा बना लेने का शौक़ भी बिगड़ते रिश्तों का कारण
अपने जैसा बना लेने का शौक़ भी बिगड़ते रिश्तों का कारण
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