मुंबई की लोकल ट्रेनों मैं सफ़र का तजुर्बा सालो रहा है ,आज कुछ ऐसा अखबार मैं पढ़ लिया की दिल चाहा आप सब से कुछ कह डालूं. मुंबई लोकल ट्रेन म...
मुंबई की लोकल ट्रेनों मैं सफ़र का तजुर्बा सालो रहा है ,आज कुछ ऐसा अखबार मैं पढ़ लिया की दिल चाहा आप सब से कुछ कह डालूं. मुंबई लोकल ट्रेन मैं सफ़र करना एक जंग जीतने से कम नहीं है. कहा जाता है मुंबई एक ऐसा शहर है जो कभी नहीं सोता लेकिन मुंबई के रहने वाले लोग लोकल ट्रेन मैं खड़े खड़े भी सो लेने मैं माहिर हैं..चर्चगेट , मुंबई वीटी ,दादर,विरार इत्यादि स्टेशन मैं , ट्रेन आने के पहले स्टेशन पे खड़ी भीड़ का नज़ारा देख के अच्छे अच्छों के पसीने छूट जाते हैं. और ट्रेन रुकने के पहले ही अधिक से अधिक लोग ट्रेन मैं बैठ चुके होते हैं. बाद मैं ट्रेन रुकने के बाद जो आया वोह बस या तो खड़ा रहेगा या फिर चौथी सीट (आधी सीट) के लिए मिन्नतें करता या झगडे करता मिलेगा. हाँ प्रथम श्रेणी के डिबों मैं चौथी सीट (आधी सीट) पे बैठने का दस्तूर नहीं. वैसे भी प्रथम श्रेणी की मुसाफिरों मैं मदद करने की आदत कम ही देखी जाती है..
विंडो सीट जिसे मिल गयी वोह समझता है उसने जग जीत लिया और इस जीत की ख़ुशी उसके चेहरे और शरीर की अकड़ मैं साफ़ देखी जा सकती है. इस ट्रेन मैं बहुत किस्म के इंसान मिलते हैं, बस आप ३-४ बार विंडो सीट पे बैठने का तजुर्बा कर लें , मेरी बात स्वम समझ जाएंगे. कोई इंसान आप को सिमट के बैठने की जगह दे देगा, कोई और फैल जाएगा ऐसे की आप ठीक से बैठ भी ना सकें और अक्सर मैंने कुछ लोगों को चौथी सीट मैं बैठ के उठते हुए भी देखा है.
आप भी सोंच रहे होंगे यह चौथी सीट है क्या मुसीबत. भाई यह हिन्दुस्तान के नागरिकों के भाईचारे की , इंसानियत की पहचान है. जो प्रथम श्रेणी के कोच मैं सफ़र करने वालों मैं ख़त्म होता जा रहा है. तीन सीट तक बैठने की जगह एक बर्थ मैं हुआ करती है. यदि तीनो लोग ज़रा ज़रा सा सिमट के बैठ जाएं तो चौथी सीट या आधी सीट और बैठने के लिए निकल आया करती है, है ना इंसानियत और भाईचारे की मिसाल?
जब मैं २८-३० साल पहले मुंबई आया तो द्वितीय श्रेणी का इन्सान था उसी श्रेणी मैं सफ़र करता था, चौथी सीट ही मिला करती थी अक्सर, चलती ट्रेन मैं ना चढ़ पाने के कारण. कुछ सालों बाद हमारे दफ्तर के अफसरों ने मुझे प्रथम श्रेणी का इंसान बना दिया, फ्री पास प्रथम श्रेणी का दे कर. जब पहली बार प्रथम श्रेणी मैं चढ़ा तो अदतानुसार, चौथी सीट पे बैठने की कोशिश की. तीसरी सीट वाले बोले "ऐ भैया मुंबई मैं नया आया है क्या" मैं घबरा गया अपने यूपी मैं टी जिसको भैया कहा उस से इज्ज़त से बात करते हैं, यह कौन है जो भैया बोल के डांट रहा है. मैंने इज्ज़त से कह दिया हाँ भाई, अभी दो साल ही हुए हैं. वोह महाशय नरमी से जवाब देने के कारण, चुप हो गए और १० मिनट बाद खुद खड़े हो के मुझको बैठने को भी दिया. उन्होंने तब बताया, मुंबई लोकल ट्रेन मैं प्रथम श्रेणी मैं चौथी सीट पे नहीं बैठा जाता. उसी दिन मुझे पता चला की जैसे जैसे इंसान के पास पैसा आता जाता है, वोह वैसे वैसे खुद के आराम के बारे मैं अधिक और दूसरों की तकलीफ के बारे मैं कम सोंचने लगता है...वैसे यहाँ बताता चलूँ की भैया मुंबई मैं यूपी ,बिहार वालों पुकारते हैं. भैया मतलब दूधवाला.
आगे जा के ट्रेन मैं धीरे धीरे भीड़ बढती जाती है और ३-४ स्टेशन बाद तो यह भी नहीं पता लगता की आपकी शर्ट बाहर है या अंदर, यह भी पता नहीं लगता की कौन किसको कहां धक्के मार रहा है, . लोग धक्का लगने पे कुछ बोलते नहीं बस हिल के रह जाते हैं, आदत सी पड चुकी होती है..
मुंबई लोकल ट्रेन मैं झगडे भी एक आम सी बात है, कभी कोई घर मैं लड़ के आया होता है तो ट्रेन मैं गुस्सा निकालता है और कभी कोई बॉस की डांट खा के आया होता है तो ट्रेन मैं सभी को डांट के बॉस बनने का नाटक करता है. अधिकतर झगडे, या तो चौथी सीट के लिए, या खड़े होने पे धक्के लगने के कारण या गेट पे ,चढ़ने की जगह घेर के खड़े लोगों के कारण हुआ करते हैं..इतनी बड़ी भीड़ मैं और वोह भी ९८% रोज़ी रोटी के लिए जाने वाले मुसाफिरों मैं चिडचिडापन एक आम सी बात है, इसलिए ऐसे बेबुनियाद झगड़ों मैं बर्दाश्त करके बात ना बढ़ने दी जाए यही बेहतर होता है..
कल एक खबर भी पढी. जिसने मुझे इस अपने इस अमन का पैग़ाम पे कुछ कहने पे मजबूर कर दिया एक परिवार जिनके साथ एक महिला और ४ साल की बच्ची भी थी, ट्रेन मैं ठाणे से चढ़े और किसी सज्जन से बैठने की जगह मांगो. वोह कोई नौजवान १९ साल के थे और लगता है विंडो सीट के मालिक बन चुके थे.अकड़ और जीत का नशा वैसे भी रहा होगा. झगडे मैं बात आगे बढती गयी और विद्याविहार स्टेशन के आस पास, उस १९ साल के लड़के ने अच्चानक, ४ साल की बच्ची को उसकी मान की गोद से चीन और भाग के जब तक लोग कुछ समझते चलती ट्रेन के बाहर फैक दिया.
ट्रेन की चैन खींच के देखा जो बच्ची का सर फट गया था, पैर और हाथ मैं फ्रक्चर हो गया था लेकिन जीवित थी और अभी अस्पताल मैं है. ऐसा लगता है की १९ साल के नौजवान ने झगडे और जोश के कारण ऐसा कर दिया हो, और यकीनन यह एक इंसानियत सी भी अधिक गिरा हुआ काम किया उसने और पकड़ा भी गया.
सब से अहम् बात जो मैंने उस खबर मैं देखी वोह यह की " उस बच्ची के बाप ने कहा उसको यदि मालूम होता की यह झगडा उसकी बच्ची के लिए इतना मंहगा पड़ेगा तो वोह खड़ा खड़ा ही सफ़र कर लेता बैठने की जगह ना मांगता." ग़लती हकीकत मैं उस १९ साल के नौजवान की थी फिर भी उस बच्ची का बाप बहुत गहरी बात बात कह गया. झगड़ों से सब्र करके, थोड़ी तकलीफ उठा के, ज़रा सा छोटा बन के , बड़ी तकलीफों से बचा जा सकता है.
आज मानवाधिकार के मौके पर यह कह देना भी आवश्यक समझता हूँ की मुंबई मैं ट्रेन से सफ़र करने वाले लोग जानवरों से बुरी हालत मैं ट्रेन से रोजाना आने जाने को मजबूर हैं. इसका ज़िम्मेदार कौन?
…स.म.मासूम
विंडो सीट जिसे मिल गयी वोह समझता है उसने जग जीत लिया और इस जीत की ख़ुशी उसके चेहरे और शरीर की अकड़ मैं साफ़ देखी जा सकती है. इस ट्रेन मैं बहुत किस्म के इंसान मिलते हैं, बस आप ३-४ बार विंडो सीट पे बैठने का तजुर्बा कर लें , मेरी बात स्वम समझ जाएंगे. कोई इंसान आप को सिमट के बैठने की जगह दे देगा, कोई और फैल जाएगा ऐसे की आप ठीक से बैठ भी ना सकें और अक्सर मैंने कुछ लोगों को चौथी सीट मैं बैठ के उठते हुए भी देखा है.
आप भी सोंच रहे होंगे यह चौथी सीट है क्या मुसीबत. भाई यह हिन्दुस्तान के नागरिकों के भाईचारे की , इंसानियत की पहचान है. जो प्रथम श्रेणी के कोच मैं सफ़र करने वालों मैं ख़त्म होता जा रहा है. तीन सीट तक बैठने की जगह एक बर्थ मैं हुआ करती है. यदि तीनो लोग ज़रा ज़रा सा सिमट के बैठ जाएं तो चौथी सीट या आधी सीट और बैठने के लिए निकल आया करती है, है ना इंसानियत और भाईचारे की मिसाल?
जब मैं २८-३० साल पहले मुंबई आया तो द्वितीय श्रेणी का इन्सान था उसी श्रेणी मैं सफ़र करता था, चौथी सीट ही मिला करती थी अक्सर, चलती ट्रेन मैं ना चढ़ पाने के कारण. कुछ सालों बाद हमारे दफ्तर के अफसरों ने मुझे प्रथम श्रेणी का इंसान बना दिया, फ्री पास प्रथम श्रेणी का दे कर. जब पहली बार प्रथम श्रेणी मैं चढ़ा तो अदतानुसार, चौथी सीट पे बैठने की कोशिश की. तीसरी सीट वाले बोले "ऐ भैया मुंबई मैं नया आया है क्या" मैं घबरा गया अपने यूपी मैं टी जिसको भैया कहा उस से इज्ज़त से बात करते हैं, यह कौन है जो भैया बोल के डांट रहा है. मैंने इज्ज़त से कह दिया हाँ भाई, अभी दो साल ही हुए हैं. वोह महाशय नरमी से जवाब देने के कारण, चुप हो गए और १० मिनट बाद खुद खड़े हो के मुझको बैठने को भी दिया. उन्होंने तब बताया, मुंबई लोकल ट्रेन मैं प्रथम श्रेणी मैं चौथी सीट पे नहीं बैठा जाता. उसी दिन मुझे पता चला की जैसे जैसे इंसान के पास पैसा आता जाता है, वोह वैसे वैसे खुद के आराम के बारे मैं अधिक और दूसरों की तकलीफ के बारे मैं कम सोंचने लगता है...वैसे यहाँ बताता चलूँ की भैया मुंबई मैं यूपी ,बिहार वालों पुकारते हैं. भैया मतलब दूधवाला.
आगे जा के ट्रेन मैं धीरे धीरे भीड़ बढती जाती है और ३-४ स्टेशन बाद तो यह भी नहीं पता लगता की आपकी शर्ट बाहर है या अंदर, यह भी पता नहीं लगता की कौन किसको कहां धक्के मार रहा है, . लोग धक्का लगने पे कुछ बोलते नहीं बस हिल के रह जाते हैं, आदत सी पड चुकी होती है..
मुंबई लोकल ट्रेन मैं झगडे भी एक आम सी बात है, कभी कोई घर मैं लड़ के आया होता है तो ट्रेन मैं गुस्सा निकालता है और कभी कोई बॉस की डांट खा के आया होता है तो ट्रेन मैं सभी को डांट के बॉस बनने का नाटक करता है. अधिकतर झगडे, या तो चौथी सीट के लिए, या खड़े होने पे धक्के लगने के कारण या गेट पे ,चढ़ने की जगह घेर के खड़े लोगों के कारण हुआ करते हैं..इतनी बड़ी भीड़ मैं और वोह भी ९८% रोज़ी रोटी के लिए जाने वाले मुसाफिरों मैं चिडचिडापन एक आम सी बात है, इसलिए ऐसे बेबुनियाद झगड़ों मैं बर्दाश्त करके बात ना बढ़ने दी जाए यही बेहतर होता है..
कल एक खबर भी पढी. जिसने मुझे इस अपने इस अमन का पैग़ाम पे कुछ कहने पे मजबूर कर दिया एक परिवार जिनके साथ एक महिला और ४ साल की बच्ची भी थी, ट्रेन मैं ठाणे से चढ़े और किसी सज्जन से बैठने की जगह मांगो. वोह कोई नौजवान १९ साल के थे और लगता है विंडो सीट के मालिक बन चुके थे.अकड़ और जीत का नशा वैसे भी रहा होगा. झगडे मैं बात आगे बढती गयी और विद्याविहार स्टेशन के आस पास, उस १९ साल के लड़के ने अच्चानक, ४ साल की बच्ची को उसकी मान की गोद से चीन और भाग के जब तक लोग कुछ समझते चलती ट्रेन के बाहर फैक दिया.
ट्रेन की चैन खींच के देखा जो बच्ची का सर फट गया था, पैर और हाथ मैं फ्रक्चर हो गया था लेकिन जीवित थी और अभी अस्पताल मैं है. ऐसा लगता है की १९ साल के नौजवान ने झगडे और जोश के कारण ऐसा कर दिया हो, और यकीनन यह एक इंसानियत सी भी अधिक गिरा हुआ काम किया उसने और पकड़ा भी गया.
सब से अहम् बात जो मैंने उस खबर मैं देखी वोह यह की " उस बच्ची के बाप ने कहा उसको यदि मालूम होता की यह झगडा उसकी बच्ची के लिए इतना मंहगा पड़ेगा तो वोह खड़ा खड़ा ही सफ़र कर लेता बैठने की जगह ना मांगता." ग़लती हकीकत मैं उस १९ साल के नौजवान की थी फिर भी उस बच्ची का बाप बहुत गहरी बात बात कह गया. झगड़ों से सब्र करके, थोड़ी तकलीफ उठा के, ज़रा सा छोटा बन के , बड़ी तकलीफों से बचा जा सकता है.
आज मानवाधिकार के मौके पर यह कह देना भी आवश्यक समझता हूँ की मुंबई मैं ट्रेन से सफ़र करने वाले लोग जानवरों से बुरी हालत मैं ट्रेन से रोजाना आने जाने को मजबूर हैं. इसका ज़िम्मेदार कौन?
…स.म.मासूम
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कुछ लोग "अमन के पैग़ाम के खिलाफ , मेल से लोगों को भड़का रहे हैं. यह हकीकत मैं समाज मैं अमन और शांति के दुश्मन हैं. ऐसे लोग खुल के कभी नहीं आते क्योंकि यह खुद जानते हैं की यह ग़लत हैं. यदि आप को "अमन के पैग़ाम" से कोई शिकायत हो तो यहाँ अपनी शिकायत दर्ज करवा दें. इस से हमें अपने इस अमन के पैग़ाम को और प्रभावशाली बनाने मैं सहायता मिलेगी,जिसका फाएदा पूरे समाज को होगा…स.म.मासूम