हम चाहते हैं कि कोई, और सब, हमें प्रेम करें लेकिन ऐसा प्रेम मिलता नहीं. फिर शिकायत होती है कि सब स्वार्थी- धोखेबाज हैं. मेरा मानना यह है...
हम चाहते हैं कि कोई, और सब, हमें प्रेम करें लेकिन ऐसा प्रेम मिलता नहीं. फिर शिकायत होती है कि सब स्वार्थी- धोखेबाज हैं. मेरा मानना यह है की कोई हमें प्रेम करे उससे भी अधिक महत्वपूर्ण है कि हम किसी से प्रेम करें. इस किसी के हो जाओ या किसी को अपना बना लो के रास्ते मैं बहुत सी रूकावटें आया करती हैं जिनपे विचार करना भी आवश्यक है
हम जब किसी से भी मिलते हैं, बात करते हैं, किसी के ब्लॉग पे जाते हैं, उसको पढ़ते हैं तो हम बहुत कम ऐसा सोंचते हैं की हम अपने जैसे किसी ही इंसान से मिल रहे हैं. सत्य यह है की जब भी मिले हम किसी से तो कोई सामाजिक रिश्ता ले के मिले. कभी हिन्दू मुसलमान ,सिख या ईसाई से मिले, कभी अपने दोस्त, दुश्मन या रिश्तेदार से मिले, कभी ग़रीब से मिले तो कभी अमीर से मिले. इन रिश्तों मैं कभी नफरत का, कभी प्रेम का ,कभी पक्षपात का , या कभी अहंकारी का एहसास स्वम ही पैदा हो जाता है. ऐसे मैं इमानदार इंसान कहीं खो जाया करता है.
ब्लॉगजगत भी ऐसे सभी एहसास से जुदा नहीं है. मैं मुसलमान हूँ इसलिए सभी मुसलमान ब्लोगेर पे ही टिप्पणी करूंगा, और अगर वोह ग़लत भी हुए तो साथ दूंगा, एक ग़लत तरीका है और ऐसी सोंच समाज को गुमराह करती है. इमानदारी और हक का साथ देना ही सही धर्म है. मैंने अपने तजुर्बे मैं पाया की ब्लॉगजगत के पिछले कुछ सालों मैं , बहुत कुछ नफरत के बीज बोये गए , जिसमें झूट और फरेब इतना अधिक था की अब लोग इमानदार को ढोंगी समझ के शक करते हैं और ऐसे मैं ढोंगी को इमानदार समझने की भूल भी कर जाया करते है. आज इस शक और अविश्वास के चलते बहुत से ब्लोगेर तो अब धर्म के नाम दूर भागते हैं. दो नेक और अच्छे इंसानों मैं रिश्ते भी इसी शक और अविश्वास के चलते चाह के भी अच्छे नहीं बन पाते.
मैंने एक लेख़ शक या वहम पे कुछ दिनों पहले लिखा था जो बहुत कम लोगों तक पहुंचा , आज उसका ही कुछ अंश पेश कर रहा हूँ.
शक या वहम एक बुरा रोग है. अगर यह हो गया किसी को तो इसका इलाज हकीम लुकमान के पास भी नहीं है. यह व्यक्ति को विवेकहीन बना देता है. शक से आपसी संबंधों में दरार पैदा हो जाया करती है.
समाज मैं एक दुसरे का संबंध भरोसे पर टिका होता है, इसे कायम रखने की जिम्मेदारी हम सब की बराबर होती है. शक और अविश्वास ने बड़े बड़े रिश्ते खराब कर दिए. हर साल मुंबई जैसे पढ़े लिखों के शहर मैं २००० से अधिक तलाक के मामले की वजह केवल शक हुआ करती है. समाज के शिक्षित और खुद को संभ्रांत कहने वाले तबके में शक का असर ज्यादा गहरा है. कभी पत्नी के पतिव्रता होने पे शक, कभी किसी की देशभक्ति पे शक, कभी किसी की सच्चाई पे शक,कभी दोस्ती पे शक, कभी मां बाप की परवरिश पे शक, कभी रिश्तेदारियों मैं शक, इस शक का कोई अंत नहीं.
इब्लीस (शैतान) की हरकतें सभी जानते हैं. कुरान और हदीसों मैं लिखा है, कि शैतान हर अच्छे काम में बाधा डालता है. तात्पर्य यह की आप अगर नमाज़ पढने की तरफ जाएं तो आप को बहुत से काम एक साथ याद आ जाएंगे. आप का दिल अगर किसी गुनाह करने की तरफ अमादा होता है तो कोई काम नहीं याद रहता. समाज मैं आप, कितनी भी फितना ओ फसाद की बातें करें, शराब और शबाब की बात करें, बहुत साथी मिल जाएंगे, कोई आप पे शक नहीं करेगा, लेकिन अगर आप अमन और नेकी की बातें करते पाए गए तो आप पे जब्र करने का इलज़ाम भी लगेगा और आप की शख़्सियत पे शक भी पैदा करने की कोशिश की जाएगी. यह असल मैं हमारे अंदर का शैतान है, जो हमसे इस तरह के काम करवाता है और शक के ज़रिये नफरत दिलों मैं पैदा करता है.. इब्लीस का काम ही यह है की समाज मैं कभी लोग एक दुसरे पे भरोसा ना करें और नतीजे मैं शांति स्थापित न हो सके.
लेखक वरिष्ठ पत्रकार राजकिशोर जी का कहना है "एक मर्ज है शक का, जिसकी दवा कहते हैं हकीम लुकमान के पास भी नहीं थी. दुर्भाग्य से, इंटरनेट पर की जा रही ब्लॉगी पत्रकारिता भी इस बीमारी से ग्रस्त है. शक को खोज की शक्ल में पेश किया जा रहा है. धरती पर सत्य नामक कोई मूल्य ही नहीं है. तमाम तरह का कीचड़ हम अपने आसपास उछालते रहते हैं और एक कुत्सित सुख का अनुभव करते हैं. इस तरह सब एक-दूसरे के शक और अविश्वास के घेरे में पड़े रहते हैं.
कुछ लोगों का विचार है की शक सच्चे ज्ञान तक पहुँचने मैं सहायक होता है, यह लोग शक और जिज्ञासा का एक ही मतलब लेते हैं. शक अज्ञानता की पहचान है , ज्ञानी को शक नहीं हुआ करता. मेरा विचार है की अगर लोग एक दुसरे पे शक करना बंद कर दें तो समाज मैं एकता स्थापित करना आसन हो जाएगा.
स.म .मासूम
हम जब किसी से भी मिलते हैं, बात करते हैं, किसी के ब्लॉग पे जाते हैं, उसको पढ़ते हैं तो हम बहुत कम ऐसा सोंचते हैं की हम अपने जैसे किसी ही इंसान से मिल रहे हैं. सत्य यह है की जब भी मिले हम किसी से तो कोई सामाजिक रिश्ता ले के मिले. कभी हिन्दू मुसलमान ,सिख या ईसाई से मिले, कभी अपने दोस्त, दुश्मन या रिश्तेदार से मिले, कभी ग़रीब से मिले तो कभी अमीर से मिले. इन रिश्तों मैं कभी नफरत का, कभी प्रेम का ,कभी पक्षपात का , या कभी अहंकारी का एहसास स्वम ही पैदा हो जाता है. ऐसे मैं इमानदार इंसान कहीं खो जाया करता है.
ब्लॉगजगत भी ऐसे सभी एहसास से जुदा नहीं है. मैं मुसलमान हूँ इसलिए सभी मुसलमान ब्लोगेर पे ही टिप्पणी करूंगा, और अगर वोह ग़लत भी हुए तो साथ दूंगा, एक ग़लत तरीका है और ऐसी सोंच समाज को गुमराह करती है. इमानदारी और हक का साथ देना ही सही धर्म है. मैंने अपने तजुर्बे मैं पाया की ब्लॉगजगत के पिछले कुछ सालों मैं , बहुत कुछ नफरत के बीज बोये गए , जिसमें झूट और फरेब इतना अधिक था की अब लोग इमानदार को ढोंगी समझ के शक करते हैं और ऐसे मैं ढोंगी को इमानदार समझने की भूल भी कर जाया करते है. आज इस शक और अविश्वास के चलते बहुत से ब्लोगेर तो अब धर्म के नाम दूर भागते हैं. दो नेक और अच्छे इंसानों मैं रिश्ते भी इसी शक और अविश्वास के चलते चाह के भी अच्छे नहीं बन पाते.
मैंने एक लेख़ शक या वहम पे कुछ दिनों पहले लिखा था जो बहुत कम लोगों तक पहुंचा , आज उसका ही कुछ अंश पेश कर रहा हूँ.
शक या वहम एक बुरा रोग है. अगर यह हो गया किसी को तो इसका इलाज हकीम लुकमान के पास भी नहीं है. यह व्यक्ति को विवेकहीन बना देता है. शक से आपसी संबंधों में दरार पैदा हो जाया करती है.
समाज मैं एक दुसरे का संबंध भरोसे पर टिका होता है, इसे कायम रखने की जिम्मेदारी हम सब की बराबर होती है. शक और अविश्वास ने बड़े बड़े रिश्ते खराब कर दिए. हर साल मुंबई जैसे पढ़े लिखों के शहर मैं २००० से अधिक तलाक के मामले की वजह केवल शक हुआ करती है. समाज के शिक्षित और खुद को संभ्रांत कहने वाले तबके में शक का असर ज्यादा गहरा है. कभी पत्नी के पतिव्रता होने पे शक, कभी किसी की देशभक्ति पे शक, कभी किसी की सच्चाई पे शक,कभी दोस्ती पे शक, कभी मां बाप की परवरिश पे शक, कभी रिश्तेदारियों मैं शक, इस शक का कोई अंत नहीं.
इब्लीस (शैतान) की हरकतें सभी जानते हैं. कुरान और हदीसों मैं लिखा है, कि शैतान हर अच्छे काम में बाधा डालता है. तात्पर्य यह की आप अगर नमाज़ पढने की तरफ जाएं तो आप को बहुत से काम एक साथ याद आ जाएंगे. आप का दिल अगर किसी गुनाह करने की तरफ अमादा होता है तो कोई काम नहीं याद रहता. समाज मैं आप, कितनी भी फितना ओ फसाद की बातें करें, शराब और शबाब की बात करें, बहुत साथी मिल जाएंगे, कोई आप पे शक नहीं करेगा, लेकिन अगर आप अमन और नेकी की बातें करते पाए गए तो आप पे जब्र करने का इलज़ाम भी लगेगा और आप की शख़्सियत पे शक भी पैदा करने की कोशिश की जाएगी. यह असल मैं हमारे अंदर का शैतान है, जो हमसे इस तरह के काम करवाता है और शक के ज़रिये नफरत दिलों मैं पैदा करता है.. इब्लीस का काम ही यह है की समाज मैं कभी लोग एक दुसरे पे भरोसा ना करें और नतीजे मैं शांति स्थापित न हो सके.
लेखक वरिष्ठ पत्रकार राजकिशोर जी का कहना है "एक मर्ज है शक का, जिसकी दवा कहते हैं हकीम लुकमान के पास भी नहीं थी. दुर्भाग्य से, इंटरनेट पर की जा रही ब्लॉगी पत्रकारिता भी इस बीमारी से ग्रस्त है. शक को खोज की शक्ल में पेश किया जा रहा है. धरती पर सत्य नामक कोई मूल्य ही नहीं है. तमाम तरह का कीचड़ हम अपने आसपास उछालते रहते हैं और एक कुत्सित सुख का अनुभव करते हैं. इस तरह सब एक-दूसरे के शक और अविश्वास के घेरे में पड़े रहते हैं.
कुछ लोगों का विचार है की शक सच्चे ज्ञान तक पहुँचने मैं सहायक होता है, यह लोग शक और जिज्ञासा का एक ही मतलब लेते हैं. शक अज्ञानता की पहचान है , ज्ञानी को शक नहीं हुआ करता. मेरा विचार है की अगर लोग एक दुसरे पे शक करना बंद कर दें तो समाज मैं एकता स्थापित करना आसन हो जाएगा.
स.म .मासूम