फ्रांस में अब कोई भी मुस्लिम महिला बुर्का नहीं पहन पाएगी। फ्रांस की संसद में बुर्के पर प्रतिबंध लगाने का विधेयक पेश कर दिया है। यदि ये वि...
फ्रांस में अब कोई भी मुस्लिम महिला बुर्का नहीं पहन पाएगी। फ्रांस की संसद में बुर्के पर प्रतिबंध लगाने का विधेयक पेश कर दिया है। यदि ये विधेयक कानून की शक्ल ले लेता है तो फ्रांस में कोई भी महिला बुर्का नहीं पहन सकेगी। दंड विधान के तहत बुर्का पहने वाली महिलाओं पर 150 यूरो और बुर्का पहनने के लिए बाध्य करने वाले पुरुषों को 30 हजार यूरो का दंड लगेगा। अमेरिका के राष्ट्रपति बराक ओबामा ने जहां इस पर असहमति दर्शायी है वही इस्लामिक दुनिया ने इसे इस्लाम के प्रति अनादर घोषित किया है.
वहां के लोगों का एक तर्क यह भी था की मुस्लिम महिलाएं अपनी मर्जी से बुर्का पहनती है क्या? और दूसरा तर्क यह की चेहरा छिपा होने से जांच एजेंसियों को बुर्का जैसी समस्या से हमेशा दो-चार होना पड़ता है। फ्रांस के राष्ट्रपति निकोलस सारकोजी ने कहा था कि बुर्का महिलाओं को कैदी बनाता है.
जैसा की देखा जा सकता है की, जिनके धर्म मैं अब परदे की अहमियत नहीं रहगयी,वोह इस विधेयक से सहमती जाता रहे हैं और वहीं दोसरी ओर मुस्लिम समुदाय जिसके यहाँ हिजाब , अल्लाह का हुक्म है इसे इस्लामिक आबादी की व्यक्तिगत आजादी को कुचलने की साज़िश बता रहा है.
मैंने भी महसूस किया की क्यों ना दोनों तरह के लोगों की दलीलों पे धयान दिया जाए. जो लोग अपनी सभ्यता व संस्कृति से दूर रहते हैं उन्हे ना पर्दे से मतलब है ना शर्म से इन्हे अपनी बहनो और माओ को भी कम कपड़ों मैं देखना बुरा नहीं लगता है क्योकि उनकी नज़र मे खूबसूरती को छिपाना खूबसूरत अंगो को छिपाना उसकी बेइज़्ज़ती है अपमान है. इंसान जब आदिवासी कहा जाता था तो जानवरों की तरह बिना कपड़ों मैं रहता था. धीरे धीरे सभ्य होता गया और औरत को केवल इस्तेमाल की वस्तु ना मान के एक इंसान की शक्ल मैं पहचानने लगा. कपडे पहनाने लगा. अब एक बार फिर इंसान के अंदर का शैतान जागा और वो हर औरत को कम से कम कपड़ों मैं देखने का शौक पूरा करने के लिए, तरह तरह के कानून बनाने लगा.
जैसे पहले ये सब नाचना गाना , सेक्स की बातें खुलेआम करना, एक सभ्य समाज का हिस्सा नही था इसे ओछी नज़रो से देखते थे लेकिन अब ये फेशन है. घूँघट की आड़ से दीदार की जगह बग़ैर कपड़ों के दीदार का शौक आज फ्रांस में बुर्के पर प्रतिबंध के रूप मैं दिखाई दिया.
आज हमारे समाज मैं अधिकतर घरों मैं, रोमांटिक फिल्म , धारावाहिक , पूरे परिवार वाले साथ बैठ के देखते हैं, यह आज से ३० साल पहले तक ओछी नज़रों से देखा जाता था. आज हिन्दुतान के महानगरों मैं ऐसी भी बहुत से घर हैं जहाँ, सेक्स की फिल्में भी , जवान बेटी बेटे के साथ माता पिता देखने मैं बुराई नहीं समझते. अगले ३० सालों मैं शायद यह सभ्य कहे जाने वाले लोगों मैं , आम सी बात हो जाएगी. इसी को हम अपनी उप्लभता मानते हैं और आज़ादी का दर्जा देते हैं.
आज इस दौर मैं , हमारे समाज मैं माता को सर ढके पूरे कपड़ों मैं, और बेटी को कम कपड़ों मैं अपने जिस्म की नुमाइश करते देखा जाना एक आम सी बात है; यही बेटी अगले १०-१५ सालों मैं माता बन चुकी होगी और सर ढके पूरे कपड़ों मैं किसी स्त्री के देखने के लिए किसी अजाएबघर मैं जाना होगा. शर्म औरत का जेवर है और इस बात को हर हिजाब या पूरे कपड़ों मैं रहने वाली स्त्री जानती है.
इमाम सादिक अ .स: जिस के पास हया नहीं उस के पास ईमान भी नहीं.
यह सत्य है की जिसको शर्म, हया , जिस्म को ढकने की अहमियत नहीं समझ मैं आएगी उसको यह सभी तर्क भी समझ मैं नहीं आएंगे.
अब तक तो मैंने उन लोगों की बात कही, जिनका इस्लाम के कानून से कुछ लेना देना नहीं ,केवल उनके धर्म मैं जिस्म को छिपाने का हुक्म है, जबकि बात दोनों एक ही है.
मुसलमान महिलाओं मैं भी बुर्के से मुक्ति की उनकी छटपटाहट देखी और महसूस की जा सकती है। और इसी प्रकार कुछ कठमुल्लाओं का इस हिजाब को ग़लत इस्तेमाल करके मुस्लिम औरतों को कैदी बनाने की कोशिश भी देखी जा सकती है. यहाँ गलत इस्तेमाल से मेरा तात्पर्य उस बुर्के से है, जिसमें चेहरा ढकना ज़रूरी कहा गया है, जबकि कुरान मैं चेहरे का पर्दा ज़रूरी नहीं. पर्दा केवल सर और जिस्म का छिपाना है, जो की हर धर्म मैं है.
इंसान को कानून मैं बंधना पसंद नहीं, मुसलमान युवा ५ वक़्त नमाज़ की पाबन्दी से या हिन्दू सुबह सवेरे उठ के भजन और आरती से मुक्ति चाहता है. आज के युवा आकर्षित होते हैं, सेक्सी फिल्म को देखने के लिए, सिगरेट और नशे की तरफ और वोह समाज के बूढ़े , लोगों से मुक्ति चाहते हैं. ठीक उसी प्रकार आज की मुसलमान युवती भी बुर्के से मुक्ति की बात करती है. उसका इस बात से कोई लेना देना नहीं की हिजाब औरत को कैदी बना देता है. यह तो केवल एक बहाना भर है ,क्योंकि यह सभी जानते हैं की हिजबा के साथ भी एक औरत अपने सभी कामों को बखूबी अंजाम दे सकती है.
मुसलमान उसे कहते हैं, जो हुक्म ए खुदा के आगे सर झुका दे और अगर कोई ऐसा ना करना चाहे , तो इस्लाम को मानने से इनकार कर सकता है, क्योंकि इस्लाम मैं कोई जब्र नहीं. फ्रांस में बुर्के पर प्रतिबंध लगने के ज़िम्मेदार वोह स्त्रियाँ हैं, जो खुद को मुसलमान कहने के बाद भी हिजाब से मुक्ति की बातें किया करती थी , क्योंकि इन्होने फ्रांस को यह मौक़ा दिया की जब मुसलमान औरत ही इस हिजाब से आज़ादी चाहती हैं तो इस्पे प्रतिबन्ध मैं क्या नुकसान है.
और दूसरे वो कठमुल्ला हैं जिन्होंने चेहरे का पर्दा ज़रूरी बताया. इन्ही दोनों से फ्रांस को यह सुनहरा अवसर प्रदान किया की, मुसलमान की आज़ादी पे अंकुश लगा दो. क्योंकि यह सत्य है की चेहरा छिपाने से जांच एजेंसियों को असुविधा तो होती होगी.
काश मुसलमान औरत शैतान के हुक्म पे सर झुकाने की जगह हुक्म ए खुदा के आगे सर झुकाती और मुल्लाओं ने सही हिजाब क्या है यह समझाया होता, तो आज फ्रांस को इतनी आसानी से बुर्का पे प्रतिबन्ध का मौक़ा ना मिला होता.
कुरआन मैं ज़िक्र है: इंसानों में से कुछ लोग ऐसे भी हैं जो कहते हैं कि हम अल्लाह और क़ियामत पर ईमान ले आये हैं, परन्तु वह मोमिन नहीं हैं। (मुनाफ़िक़ यह समझते हैं कि) वह अल्लाह व मोमिनों को धोका दे रहे हैं, जबकि वास्तविकता यह है कि वह स्वयं को धोका देते हैं, लेकिन वह इस बात को नहीं समझ पा रहे हैं।
इस्लाम को कभी भी कोई खतरा उनसे नहीं रहा जो इस्लाम को नहीं मानते , बल्कि हमेशा इस्लाम को नुकसान पहुँचाया है दो चेहरे (मुनाफ़िक़) वाले मुसलमानों ने, जो खुद को मुसलमान भी कहते हैं और हुक्म ए खुदा के खिलाफ चलते भी हैं.
वहां के लोगों का एक तर्क यह भी था की मुस्लिम महिलाएं अपनी मर्जी से बुर्का पहनती है क्या? और दूसरा तर्क यह की चेहरा छिपा होने से जांच एजेंसियों को बुर्का जैसी समस्या से हमेशा दो-चार होना पड़ता है। फ्रांस के राष्ट्रपति निकोलस सारकोजी ने कहा था कि बुर्का महिलाओं को कैदी बनाता है.
जैसा की देखा जा सकता है की, जिनके धर्म मैं अब परदे की अहमियत नहीं रहगयी,वोह इस विधेयक से सहमती जाता रहे हैं और वहीं दोसरी ओर मुस्लिम समुदाय जिसके यहाँ हिजाब , अल्लाह का हुक्म है इसे इस्लामिक आबादी की व्यक्तिगत आजादी को कुचलने की साज़िश बता रहा है.
मैंने भी महसूस किया की क्यों ना दोनों तरह के लोगों की दलीलों पे धयान दिया जाए. जो लोग अपनी सभ्यता व संस्कृति से दूर रहते हैं उन्हे ना पर्दे से मतलब है ना शर्म से इन्हे अपनी बहनो और माओ को भी कम कपड़ों मैं देखना बुरा नहीं लगता है क्योकि उनकी नज़र मे खूबसूरती को छिपाना खूबसूरत अंगो को छिपाना उसकी बेइज़्ज़ती है अपमान है. इंसान जब आदिवासी कहा जाता था तो जानवरों की तरह बिना कपड़ों मैं रहता था. धीरे धीरे सभ्य होता गया और औरत को केवल इस्तेमाल की वस्तु ना मान के एक इंसान की शक्ल मैं पहचानने लगा. कपडे पहनाने लगा. अब एक बार फिर इंसान के अंदर का शैतान जागा और वो हर औरत को कम से कम कपड़ों मैं देखने का शौक पूरा करने के लिए, तरह तरह के कानून बनाने लगा.
जैसे पहले ये सब नाचना गाना , सेक्स की बातें खुलेआम करना, एक सभ्य समाज का हिस्सा नही था इसे ओछी नज़रो से देखते थे लेकिन अब ये फेशन है. घूँघट की आड़ से दीदार की जगह बग़ैर कपड़ों के दीदार का शौक आज फ्रांस में बुर्के पर प्रतिबंध के रूप मैं दिखाई दिया.
आज हमारे समाज मैं अधिकतर घरों मैं, रोमांटिक फिल्म , धारावाहिक , पूरे परिवार वाले साथ बैठ के देखते हैं, यह आज से ३० साल पहले तक ओछी नज़रों से देखा जाता था. आज हिन्दुतान के महानगरों मैं ऐसी भी बहुत से घर हैं जहाँ, सेक्स की फिल्में भी , जवान बेटी बेटे के साथ माता पिता देखने मैं बुराई नहीं समझते. अगले ३० सालों मैं शायद यह सभ्य कहे जाने वाले लोगों मैं , आम सी बात हो जाएगी. इसी को हम अपनी उप्लभता मानते हैं और आज़ादी का दर्जा देते हैं.
आज इस दौर मैं , हमारे समाज मैं माता को सर ढके पूरे कपड़ों मैं, और बेटी को कम कपड़ों मैं अपने जिस्म की नुमाइश करते देखा जाना एक आम सी बात है; यही बेटी अगले १०-१५ सालों मैं माता बन चुकी होगी और सर ढके पूरे कपड़ों मैं किसी स्त्री के देखने के लिए किसी अजाएबघर मैं जाना होगा. शर्म औरत का जेवर है और इस बात को हर हिजाब या पूरे कपड़ों मैं रहने वाली स्त्री जानती है.
इमाम सादिक अ .स: जिस के पास हया नहीं उस के पास ईमान भी नहीं.
यह सत्य है की जिसको शर्म, हया , जिस्म को ढकने की अहमियत नहीं समझ मैं आएगी उसको यह सभी तर्क भी समझ मैं नहीं आएंगे.
अब तक तो मैंने उन लोगों की बात कही, जिनका इस्लाम के कानून से कुछ लेना देना नहीं ,केवल उनके धर्म मैं जिस्म को छिपाने का हुक्म है, जबकि बात दोनों एक ही है.
मुसलमान महिलाओं मैं भी बुर्के से मुक्ति की उनकी छटपटाहट देखी और महसूस की जा सकती है। और इसी प्रकार कुछ कठमुल्लाओं का इस हिजाब को ग़लत इस्तेमाल करके मुस्लिम औरतों को कैदी बनाने की कोशिश भी देखी जा सकती है. यहाँ गलत इस्तेमाल से मेरा तात्पर्य उस बुर्के से है, जिसमें चेहरा ढकना ज़रूरी कहा गया है, जबकि कुरान मैं चेहरे का पर्दा ज़रूरी नहीं. पर्दा केवल सर और जिस्म का छिपाना है, जो की हर धर्म मैं है.
इंसान को कानून मैं बंधना पसंद नहीं, मुसलमान युवा ५ वक़्त नमाज़ की पाबन्दी से या हिन्दू सुबह सवेरे उठ के भजन और आरती से मुक्ति चाहता है. आज के युवा आकर्षित होते हैं, सेक्सी फिल्म को देखने के लिए, सिगरेट और नशे की तरफ और वोह समाज के बूढ़े , लोगों से मुक्ति चाहते हैं. ठीक उसी प्रकार आज की मुसलमान युवती भी बुर्के से मुक्ति की बात करती है. उसका इस बात से कोई लेना देना नहीं की हिजाब औरत को कैदी बना देता है. यह तो केवल एक बहाना भर है ,क्योंकि यह सभी जानते हैं की हिजबा के साथ भी एक औरत अपने सभी कामों को बखूबी अंजाम दे सकती है.
मुसलमान उसे कहते हैं, जो हुक्म ए खुदा के आगे सर झुका दे और अगर कोई ऐसा ना करना चाहे , तो इस्लाम को मानने से इनकार कर सकता है, क्योंकि इस्लाम मैं कोई जब्र नहीं. फ्रांस में बुर्के पर प्रतिबंध लगने के ज़िम्मेदार वोह स्त्रियाँ हैं, जो खुद को मुसलमान कहने के बाद भी हिजाब से मुक्ति की बातें किया करती थी , क्योंकि इन्होने फ्रांस को यह मौक़ा दिया की जब मुसलमान औरत ही इस हिजाब से आज़ादी चाहती हैं तो इस्पे प्रतिबन्ध मैं क्या नुकसान है.
और दूसरे वो कठमुल्ला हैं जिन्होंने चेहरे का पर्दा ज़रूरी बताया. इन्ही दोनों से फ्रांस को यह सुनहरा अवसर प्रदान किया की, मुसलमान की आज़ादी पे अंकुश लगा दो. क्योंकि यह सत्य है की चेहरा छिपाने से जांच एजेंसियों को असुविधा तो होती होगी.
काश मुसलमान औरत शैतान के हुक्म पे सर झुकाने की जगह हुक्म ए खुदा के आगे सर झुकाती और मुल्लाओं ने सही हिजाब क्या है यह समझाया होता, तो आज फ्रांस को इतनी आसानी से बुर्का पे प्रतिबन्ध का मौक़ा ना मिला होता.
कुरआन मैं ज़िक्र है: इंसानों में से कुछ लोग ऐसे भी हैं जो कहते हैं कि हम अल्लाह और क़ियामत पर ईमान ले आये हैं, परन्तु वह मोमिन नहीं हैं। (मुनाफ़िक़ यह समझते हैं कि) वह अल्लाह व मोमिनों को धोका दे रहे हैं, जबकि वास्तविकता यह है कि वह स्वयं को धोका देते हैं, लेकिन वह इस बात को नहीं समझ पा रहे हैं।
इस्लाम को कभी भी कोई खतरा उनसे नहीं रहा जो इस्लाम को नहीं मानते , बल्कि हमेशा इस्लाम को नुकसान पहुँचाया है दो चेहरे (मुनाफ़िक़) वाले मुसलमानों ने, जो खुद को मुसलमान भी कहते हैं और हुक्म ए खुदा के खिलाफ चलते भी हैं.