किशोरों की प्राय: यह शिकायत रहती है कि माता पिता और अन्य बड़े लोग हमारी भावनाओं एवं इच्छाओं को समझते नहीं हैं, वे अपने विचारों को हमपर थोप...
किशोरों की प्राय: यह शिकायत रहती है कि माता पिता और अन्य बड़े लोग हमारी भावनाओं एवं इच्छाओं को समझते नहीं हैं, वे अपने विचारों को हमपर थोपते हैं, और वहीं दूसरी ओर माता- पिता अपने युवाओं के व्यवहार से अप्रसन्न मिलते हैं और कहते हैं कि वे उद्दण्ड हो गए हैं, छोटे , बड़ों का आदर ही नहीं करते, वो सोचते हैं कि जो वो सोचते हैं वही ठीक है।
क्या इसका इसका समाधान यह है की बच्चों को हर कार्य के लिए खुली छूट दे दी जाए? जहाँ तक मैं समझता हूँ खुली छूट देना , यह भी एक प्रकार से गुमराही का स्रोत है और इसका समाधान यह भी नहीं की आप जेलर बन जाएं और हर समय उसको टोकते रहें और उसके पीछे भागते रहें। तो क्या करें?
यह हम सब जानते हैं की मनुष्य जन्म से लेकर मृत्यु तक प्रशिक्षण की प्रक्रिया से गुज़रता रहता है और वोह अपने आस पास के लोगों से , समाज से बहुत कुछ सीखते हैं. बचपन से युवावस्था तक प्रशिक्षण का विशेष महत्व होता है।
इसलिए अच्छा है कि इसी आयु में हम अपने बच्चों को शिष्टाचारिक नियमों, सामाजिकरीति रिवाजों को सीखाएं. सबसे पहले माता- पिता को चाहिए कि वे अपने बच्चों के लिए पवित्रता तथा नैतिकता का उदाहरण बने ताकि बच्चे उनसे इसे सीख सकें। अगर बचपन मैं सही शिक्षा दी जाए तो युवावस्था मैं अधिक दिक्क़तों का सामना नहीं करना पड़ता है।
माता- पिताओं को यह स्वीकार कर लेना चाहिए कि हमारी सन्तान अब कोई छोटा सा बच्चा नहीं है और बार बार यह करो ,यह न करो कहने का उसपर नकारत्मक प्रभाव पड़ेगा। हमेंअपनी युवा सन्तानों का मित्र और साथी होना चाहिए। बजाए इसके कि उसके मुक़ाबले में खड़े हो जाएं या उसपर नियन्त्रण रखने के लिए निरन्तर उसका पीछा करते रहें या अकारण ही उसकी आलोचना करें जिससे केवल युवा की प्रतिक्रियाएं ही सामने आएंगी, हमें चाहिए कि उसके मित्र बनकर रहें।
युवाओं के अपने कुछ विशेष विचार होते हैं, उनके कोमल एवं सवेंदनशील संसार को कदापि तुच्छ न समझें हमें प्रयास करना चाहिए कि युवा की रुचि के अनुकूल उसके लिए उचित साधन जुटाएं.
मित्र तथा युवा की आयु के उसके साथी, उसके व्यक्तित्व निर्भाण में बहुत प्रभावी भूमिका निमाते हैं। इसलिए हमें सर्तक रहना चाहिए कि उसके घनिष्ट मित्र कौन हैं, उनकी क्या विशेषताएं हैं और उनके परिवार पर किस विशेष संस्कृति का प्रभाव है। क्योंकि युवा अपने मित्रों का अनुसरण बड़ी जल्दी करने लगता है और यदि उसके मित्र विश्वसनीय और उचित न हों तो क्या हो सकता है यह आप स्वंम सोचें।
घरेलू समस्याओं मैं अपने बच्चों से सलाह मशविरा किया करें यह उसके व्यक्तित्व के विकास का महत्वपूर्ण कारक होता है.इसके साथ साथ उसकी समस्याओं मैं उसकी की सहायता कीजिए ताकि वो यह सीखे कि एक ही विषय के विभिन्न आयोमों पर पहले विचार फिर निर्णय लिया जाता है। उसे यह भी समझाइए कि कोई राय पेश करने का अर्थ यह नहीं है कि यही आन्तिम निर्णय है। दूसरों के सम्मुख युवाओं का अपमान कदापि नहीं करना चाहिए।
आप युवा को यह समझाएं कि उसके कोर्यों की ज़िम्मेदारी केवल उसी पर है और आप आवश्यकता पड़ने पर उसकी सहायता कर सकते हैं। यह आप का फ़र्ज़ भी है की आप अपने बच्चे की मदद करें।
आज के दौर मैं बच्चे को पूरी तरह से T.V. सिनेमा और कमप्यूटर गैम्स से दूर रखना कठिन होता जा रहा है. ऐसे मैं जब आप को यह दर हमेशा बना रहता है की कहीं आप का बच्चा इन कार्यक्रमों से अधिक प्रभावित ना हो जाए. इन कार्यक्रमों का प्रभाव उनके मन पर इतना पड़ता है कि वे उस फ़िल्म के नायक का पूर्ण रूप से अनुसरण करने लगते हैं। उसके संवादों का एक एक शब्द याद करके उसे दोहराते हैं। यहॉं तक कि उनके बात करने के ढंग, उनके चलने फिरने और पहनावे का भी अनुसरण करने का पूरा प्रयास करते हैं ।
जब बच्चे छोटी आयु से ही हिंसात्मक दृश्य देखते हैं तो उस हिंसा तथा उसकी बलि चढ़े लोगों के प्रति उसके मन में सहानुभूति की भावना समाप्त हो जाती है। उसे फ़िल्म के हीरो से ही सहानुभूति होती है न कि उसकी हिंसात्मक कार्रवाइयों की भेंट चढ़े लोगों से। हिंसात्मक दृश्यों का भी प्रभाव दोनों ही प्रकार के बच्चों के मन पर पड़ता है। ऐसे ही दृश्यों को देखकर बच्चों के मन में हिंसा के विरोध जो भावनाएं एवं संवेदनाएं होनी चाहिए , धीरे धीरे उनका अन्त हो जाता है और बच्चा उसी का अनुसरण करने लगता है।
ऐसे मैं आपके बच्चे को एक ऐसे परिवार की आवश्यकता होती है जिस में संबंध आत्मीय तथा प्रेम पूर्ण हों। अगर उन्हें ऐसा वातावरण नहीं मिलता है तो इस प्रेम के रिक्त स्थान को अन्य चीज़ों से भरना चाहते हैं, और हिंसात्मक द्रश्यों, कमप्यूटर गैम्स, और फिल्म का प्रभाव उनके व्यवहार मैं दिखने लगता है।
क्या इसका इसका समाधान यह है की बच्चों को हर कार्य के लिए खुली छूट दे दी जाए? जहाँ तक मैं समझता हूँ खुली छूट देना , यह भी एक प्रकार से गुमराही का स्रोत है और इसका समाधान यह भी नहीं की आप जेलर बन जाएं और हर समय उसको टोकते रहें और उसके पीछे भागते रहें। तो क्या करें?
यह हम सब जानते हैं की मनुष्य जन्म से लेकर मृत्यु तक प्रशिक्षण की प्रक्रिया से गुज़रता रहता है और वोह अपने आस पास के लोगों से , समाज से बहुत कुछ सीखते हैं. बचपन से युवावस्था तक प्रशिक्षण का विशेष महत्व होता है।
इसलिए अच्छा है कि इसी आयु में हम अपने बच्चों को शिष्टाचारिक नियमों, सामाजिकरीति रिवाजों को सीखाएं. सबसे पहले माता- पिता को चाहिए कि वे अपने बच्चों के लिए पवित्रता तथा नैतिकता का उदाहरण बने ताकि बच्चे उनसे इसे सीख सकें। अगर बचपन मैं सही शिक्षा दी जाए तो युवावस्था मैं अधिक दिक्क़तों का सामना नहीं करना पड़ता है।
माता- पिताओं को यह स्वीकार कर लेना चाहिए कि हमारी सन्तान अब कोई छोटा सा बच्चा नहीं है और बार बार यह करो ,यह न करो कहने का उसपर नकारत्मक प्रभाव पड़ेगा। हमेंअपनी युवा सन्तानों का मित्र और साथी होना चाहिए। बजाए इसके कि उसके मुक़ाबले में खड़े हो जाएं या उसपर नियन्त्रण रखने के लिए निरन्तर उसका पीछा करते रहें या अकारण ही उसकी आलोचना करें जिससे केवल युवा की प्रतिक्रियाएं ही सामने आएंगी, हमें चाहिए कि उसके मित्र बनकर रहें।
युवाओं के अपने कुछ विशेष विचार होते हैं, उनके कोमल एवं सवेंदनशील संसार को कदापि तुच्छ न समझें हमें प्रयास करना चाहिए कि युवा की रुचि के अनुकूल उसके लिए उचित साधन जुटाएं.
मित्र तथा युवा की आयु के उसके साथी, उसके व्यक्तित्व निर्भाण में बहुत प्रभावी भूमिका निमाते हैं। इसलिए हमें सर्तक रहना चाहिए कि उसके घनिष्ट मित्र कौन हैं, उनकी क्या विशेषताएं हैं और उनके परिवार पर किस विशेष संस्कृति का प्रभाव है। क्योंकि युवा अपने मित्रों का अनुसरण बड़ी जल्दी करने लगता है और यदि उसके मित्र विश्वसनीय और उचित न हों तो क्या हो सकता है यह आप स्वंम सोचें।
घरेलू समस्याओं मैं अपने बच्चों से सलाह मशविरा किया करें यह उसके व्यक्तित्व के विकास का महत्वपूर्ण कारक होता है.इसके साथ साथ उसकी समस्याओं मैं उसकी की सहायता कीजिए ताकि वो यह सीखे कि एक ही विषय के विभिन्न आयोमों पर पहले विचार फिर निर्णय लिया जाता है। उसे यह भी समझाइए कि कोई राय पेश करने का अर्थ यह नहीं है कि यही आन्तिम निर्णय है। दूसरों के सम्मुख युवाओं का अपमान कदापि नहीं करना चाहिए।
आप युवा को यह समझाएं कि उसके कोर्यों की ज़िम्मेदारी केवल उसी पर है और आप आवश्यकता पड़ने पर उसकी सहायता कर सकते हैं। यह आप का फ़र्ज़ भी है की आप अपने बच्चे की मदद करें।
आज के दौर मैं बच्चे को पूरी तरह से T.V. सिनेमा और कमप्यूटर गैम्स से दूर रखना कठिन होता जा रहा है. ऐसे मैं जब आप को यह दर हमेशा बना रहता है की कहीं आप का बच्चा इन कार्यक्रमों से अधिक प्रभावित ना हो जाए. इन कार्यक्रमों का प्रभाव उनके मन पर इतना पड़ता है कि वे उस फ़िल्म के नायक का पूर्ण रूप से अनुसरण करने लगते हैं। उसके संवादों का एक एक शब्द याद करके उसे दोहराते हैं। यहॉं तक कि उनके बात करने के ढंग, उनके चलने फिरने और पहनावे का भी अनुसरण करने का पूरा प्रयास करते हैं ।
जब बच्चे छोटी आयु से ही हिंसात्मक दृश्य देखते हैं तो उस हिंसा तथा उसकी बलि चढ़े लोगों के प्रति उसके मन में सहानुभूति की भावना समाप्त हो जाती है। उसे फ़िल्म के हीरो से ही सहानुभूति होती है न कि उसकी हिंसात्मक कार्रवाइयों की भेंट चढ़े लोगों से। हिंसात्मक दृश्यों का भी प्रभाव दोनों ही प्रकार के बच्चों के मन पर पड़ता है। ऐसे ही दृश्यों को देखकर बच्चों के मन में हिंसा के विरोध जो भावनाएं एवं संवेदनाएं होनी चाहिए , धीरे धीरे उनका अन्त हो जाता है और बच्चा उसी का अनुसरण करने लगता है।
ऐसे मैं आपके बच्चे को एक ऐसे परिवार की आवश्यकता होती है जिस में संबंध आत्मीय तथा प्रेम पूर्ण हों। अगर उन्हें ऐसा वातावरण नहीं मिलता है तो इस प्रेम के रिक्त स्थान को अन्य चीज़ों से भरना चाहते हैं, और हिंसात्मक द्रश्यों, कमप्यूटर गैम्स, और फिल्म का प्रभाव उनके व्यवहार मैं दिखने लगता है।