इस्लाम के अनुसार दाम्पत्य-संबंध के अच्छे या बुरे होने पर परिवार और समाज का; यहाँ तक कि सामूहिक व्यवस्था और सभ्यता व संस्कृति का भी; अच्छा ...
इस्लाम के अनुसार दाम्पत्य-संबंध के अच्छे या बुरे होने पर परिवार और समाज का; यहाँ तक कि सामूहिक व्यवस्था और सभ्यता व संस्कृति का भी; अच्छा या बुरा बनना निर्भर करता है। अतः इस बुनियाद को मज़बूत बनाने और मज़बूत रखने के काफ़ी यत्न इस्लाम ने किए हैं। पैग़म्बर मुहम्मद (सल्ल॰) ने बताया कि , रिश्ते तय करने में धन-सम्पत्ति, सुन्दरता को महत्व देने की जगह , नेकी, अच्छे चरित्र, शील, सद्व्यवहार, ईश्वर से व्यावहारिक संबंध, सदाचार आदि को महत्व दिया जाए। फिर विवाह (निकाह) के अवसर नव-दम्पत्ति को यह शिक्षा याद दिलाई जाती है कि इस तरह जीवन बिताना कि अल्लाह (और उसके पैग़म्बर) की अवज्ञा (नाफ़रमानी) से बचते रहना।
इस्लाम ने बिना निकाह के स्त्री-पुरुष मिलाप को नैतिक, सामाजिक व क़ानूनी अपराध क़रार देकर ऐसे संबंध को अवैध (हराम) ठहराया. शादी के बाद पति पत्नी का दूसरे के प्रति बहुत से कर्तव्य, और बहुत से अधिकार निर्धारित किए हैं। इस्लाम दाम्पत्य जीवन को प्रारंभिक चरण में ही एक दृढ़ नैतिक व आध्यात्मिक आधार प्रदान कर देता है।
इस्लामी दाम्पत्य व्यवस्था में ‘नारी’ और ‘पुरुष’ की शारीरिक संरचना और प्राकृतिक अवस्था के ठीक अनुकूल कार्य का निर्धारण व विभाजन किया गया है. पुष्ट शरीर और अधिक शारीरिक शक्ति व बल के अनुकूल घर के बाहर का काम जिस में काफ़ी परिश्रम करना होता है, पति के ज़िम्मे; और के काम, घर के अन्दर; जहाँ औरत के शरीर व शील की सुरक्षा यक़ीनी होती है, बच्चों और घर की देख-रेख व रख-रखाव तथा परिवार और पति के मान-मर्यादा की सुरक्षा का काम सरलता, सुख व सुधड़ता-संन्दरता से करना आसान होता है, पत्नी के ज़िम्मे।
एक नारी बच्चों को जन्म दे और उसका का पालन-पोषण भी करे ,और उसके साथ साथ नौकरी कर के घर का खर्च भी उठाए यह कहां का इन्साफ है? ऐसे मैं दाम्पत्य जीवन नकारात्मक प्रभावों से बोझिल और बुरे परिणामों से ग्रस्त होने लगता है।
इस्लाम ने शिक्षा दी है कि पति, हलाल कमाई से अर्जित रोज़ी का एक कौर (लुक़मा) जो प्रेम के साथ पत्नी के मुँह में डालता है वह सदक़ा और इबादत का स्थान रखता है। इसमें दोनों के बीच प्रेम-संबंध के साथ-साथ इस बात की शिक्षा भी निहित है कि कमाने-धमाने का काम पति करे, कमाई करने के लिए पत्नी को घर के शांतिपूर्ण, सुखमय व सुरक्षित वातावरण से बाहर मेहनत-मशक़्क़त और मानसिक तनाव के वातावरण में, तथा ऐसे वातावरण में जाने से बचाए जहाँ उसके नारीत्व, गरिमा व शील को ख़तरा हो।
परिवार, पति-पत्नी और बच्चों से बनता है। इसमें माता-पिता और भाई-बहन के संबंध भी होते हैं। इस्लाम एक दृढ़ व उत्कृष्ट दाम्पत्य-व्यवस्था देने के बाद एक अच्छे से अच्छे परिवार की सृजन की ओर ध्यान देता है। वह परिवारजनों में, कर्तव्य-अधिकार संहिता के द्वारा एक-दूसरे के प्रति अच्छे संबंध स्थापित रखने का प्रावधान करता है।
माता-पिता, जीवन के किसी भी चरण में अगर आर्थिक रूप से स्वावलंबित न रहकर असहाय हो जाएँ ख़ास तौर से बुढ़ापे में, तो इस्लाम ने नैतिक स्तर के साथ-साथ क़ानूनी स्तर पर भी, उनके भरण-पोषण की ज़िम्मेदारी बेटों पर डाली है।
कु़रआन में (17:23) हुक्म दिया गया है कि माँ-बाप को (डाँटना, झिड़कना तो बहुत दूर की बात है) कभी ‘उफ़ ’ तक भी मत कहो। माता-पिता की नाफ़रमानी व अवज्ञा करने को, उन्हें मानसिक या भावनात्मक दुख देने को, उन्हें शारीरिक कष्ट देने को, और उनका अनादर व अपमान करने को ‘हराम’ क़रार दिया गया है और कहा गया है कि माता-पिता के साथ दुर्व्यवहार करने वाली संतान चाहे कितनी ही नेकियाँ, पुण्य कार्य और इबादत-पूजा-पाठ करके दुनिया से जाए, परलोक में वह नरक की भागी होगी।
ख़ून के रिश्तों को कमज़ोर करने से सख़्ती से रोका गया है और इन्हें तोड़ने, ख़त्म करने को वर्जित कर दिया गया है। आदेश है कि परिवार और ख़ून के रिश्तों के लोग तुम्हारे साथ दुर्व्यवहार भी करें तो भी तुम बदले में दुर्व्यवहार नहीं, सद्व्यवहार, उपकार और सहयोग व सहायता की नीति पर चलो। एक अच्छे परिवार, एक अच्छे ख़ानदान के सृजन व स्थापन के लिए सहानुभूति, आदर, प्रेम, सहयोग, क्षमाशीलता, उदारता, संयम, सहिष्णुता, उत्सर्ग, त्याग, शुभेच्छा, उत्सर्ग आदि नैतिक गुणों के साथ-साथ इस्लाम के पैग़म्बर हज़रत मुहम्मद (सल्ल॰) ने यह शिक्षा भी दी है कि ‘‘कमाल यह नहीं है कि तुम्हारे रिश्तेदार और परिजन तुम्हारे साथ सद्व्यवहार करें तब तुम (बदले में) उनके साथ सद्व्यवहार करो। कमाल इस में है कि यदि वे तुम्हारे साथ दुर्व्यवहार करें तब भी तुम बदले में दुर्व्यवहार नहीं, सद्व्यवहार और परोपकार करो।’’
अच्छे समाज में अच्छे परिवार पनपते हैं, अच्छे परिवार में अच्छे इन्सान बनते हैं। समाज में नेकियों, भलाइयों को फैलाना व स्थापित करना तथा बुराइयों को रोकना तथा उनका उन्मूलन करना तुम्हारा प्रमुख उत्तरदायित्व है (कु़रआन, 3:104, 7:157, 9:67,71, 22:41, 31:17)। कोई भी व्यक्ति यह सोचने का औचित्य नहीं रखता कि ‘‘कुछ भी हो रहा है, हम से क्या मतलब!’’ समाज में शराफ़त, नेकी, अच्छाई, भलाई का प्रचलन हो; नाइन्साफ़ी, बुराई, बदी, अत्याचार, अनाचार, अन्याय; बेहयाई, अश्लीलता, नग्नता और बेशर्मी आदि का उन्मूलन हो, इसके लिए इस्लाम के पैग़म्बर हज़रत मुहम्मद (सल्ल॰) ने आदेश दिया है कि ‘‘बुराई को देखो तो उसे हाथ से (अर्थात् बलपूर्वक) रोक दो; अगर इसकी क्षमता न हो तो ज़बान से (अर्थात्, बोलकर) रोको; अगर इसकी क्षमता भी न हो तो कम से कम, उस बुराई को दिल से तो बुरा जानो......लेकिन (सुन लो कि) यह अन्तिम स्थिति ईमान की सबसे अन्तिम, न्यूनतम श्रेणी है।’’
इस्लाम एक ऐसी सामाजिक व्यवस्था देता है जिसमें समाज का हर व्यक्ति, हर परिवार, हर घर आपसी मेल-मिलाप द्वारा एक-दूसरे से निरंतर जुड़ा रहे। लोग अलग-थलग, अपनी खाल में मस्त, अपनी व्यक्तिगत दुनिया में मग्न, अपने व्यक्तित्व या अपने परिवार के अन्दर सीमित, और अपने ही लाभ व स्वार्थ के चारों ओर कोल्हू के बैल की तरह घूमते न रहें।
पड़ोसियों में ख़राब तअल्लुक़ अक्सर एक सामाजिक अभिशाप बनकर उभरता है। इस्लाम ने आदेश दिया है कि पड़ोसी को कष्ट मत दो, उसे सताओ मत, वह कमज़ोर हो तो उसे दबाओ मत। उसे कभी हल्की-सी आशंका भी न हो कि तुम से उसके मान-सम्मान को या उसके धन-सम्पत्ति को कभी कोई क्षति हो सकती है, नुक़सान पहुँच सकता है। पैग़म्बर मुहम्मद (सल्ल॰) ने चेतावनी दी कि तुममें से कोई भी व्यक्ति सही मायने में, सच्चा मुस्लिम नहीं है जो पेट भरकर सोए और उसका पड़ोसी (निर्धनता या किसी और कारणवश) भूखा सोए।
इसी तरह आप (सल्ल॰) ने यह भी फ़रमाया कि वह व्यक्ति मुस्लिम नहीं है जिसकी शरारतों और उद्दंडता से उसका पड़ोसी सुरक्षित और अमान में न हो। इस्लाम अपनी सामाजिक व्यवस्था में ‘पड़ोसी से संबंध’ के बारे में इतना ज़्यादा संवेदनशील है कि पैग़म्बर (सल्ल॰) ने आदेश दिया है कि फल खाकर छिलके घर के बाहर मत डाल दो ताकि तुम्हारे (ग़रीब) पड़ोसी के बच्चे छिलके देखकर अपनी ग़रीबी महसूस करके उदास और दुखी न हो उठें।
किसी की मृत्यु हो जाए तो उसे दफ़न करने से पहले, इस्लाम ने उसकी सामूहिक नमाज़े जनाज़ा पढ़ने का हुक्म दिया है, और जनाज़े के साथ क़ब्रिस्तान तक जाने और दफ़न-क्रिया में शरीक होने का। फिर यह आदेश भी दिया गया है कि समाज के लोग, उसके परिजनों को तीन दिन तक खाना बनाकर, घर ले जाकर खिलाने का बन्दोबस्त करें। इससे दुखी परिवार को आभास व एहसास होता है कि पूरा समाज उसके दुख में शरीक है। लोग उसे अपना समझते हैं।
इस्लाम ने आदेश दिया है कि समाज में कोई बीमार पड़ जाए तो उसके पास लोगों को जाते रहना चाहिए। सहयोग करना चाहिए और उसके स्वास्थ्य के लिए दुआ करनी चाहिए।
इस्लाम की सामाजिक व्यवस्था में, ग़रीबों, निर्धनों, असहायों, अनाथों, बीमारों, पीड़ितों, असहाय विधवाओं आदि की हर प्रकार की, संभव सहायता करने के आदेश हैं। इस्लाम ने कहा है कि तुम ऐसा करोगे तो यह उन पर तुम्हारा कोई उपकार या एहसान न होगा, बल्कि अल्लाह ने (जिसने तुम्हें धन आदि दिया है) तुम्हारे धन व संसाधनों में उन ज़रूरतमन्दों का हिस्सा रखा है। इस भ्रम में मत पड़ो कि जो कुछ तुम्हारे पास है वह कुल का कुल तुम्हारा है। और देखो, उन पर ख़र्च करो तो उन पर एहसान जताकर उनको कष्ट मत पहुँचाना, उनका अपमान मत करना, उनसे कोई प्रतिदान, कोई बदला मत चाहना। प्रतिदान तो तुम्हें अल्लाह देगा; इस जीवन में भी, और परलोक जीवन में तो पुरस्कार व प्रतिदान की मात्र अत्यधिक, चिरस्थाई होगी।
इस्लाम ने मानवजाति को एक उत्तम व उत्कृष्ट सामाजिक व्यवस्था प्रदान की है। यह और बात है की बहुत से बाहरी कारणों से और बहुत से आन्तरिक कारकों से वर्तमान का मुस्लिम समाज, सही मायने में ‘इस्लामी समाज’ के मानदंड पर पूरा नहीं उतरता, और हमको इस कमी को दूर करते रहना चहिये.
इस्लाम ने बिना निकाह के स्त्री-पुरुष मिलाप को नैतिक, सामाजिक व क़ानूनी अपराध क़रार देकर ऐसे संबंध को अवैध (हराम) ठहराया. शादी के बाद पति पत्नी का दूसरे के प्रति बहुत से कर्तव्य, और बहुत से अधिकार निर्धारित किए हैं। इस्लाम दाम्पत्य जीवन को प्रारंभिक चरण में ही एक दृढ़ नैतिक व आध्यात्मिक आधार प्रदान कर देता है।
इस्लामी दाम्पत्य व्यवस्था में ‘नारी’ और ‘पुरुष’ की शारीरिक संरचना और प्राकृतिक अवस्था के ठीक अनुकूल कार्य का निर्धारण व विभाजन किया गया है. पुष्ट शरीर और अधिक शारीरिक शक्ति व बल के अनुकूल घर के बाहर का काम जिस में काफ़ी परिश्रम करना होता है, पति के ज़िम्मे; और के काम, घर के अन्दर; जहाँ औरत के शरीर व शील की सुरक्षा यक़ीनी होती है, बच्चों और घर की देख-रेख व रख-रखाव तथा परिवार और पति के मान-मर्यादा की सुरक्षा का काम सरलता, सुख व सुधड़ता-संन्दरता से करना आसान होता है, पत्नी के ज़िम्मे।
एक नारी बच्चों को जन्म दे और उसका का पालन-पोषण भी करे ,और उसके साथ साथ नौकरी कर के घर का खर्च भी उठाए यह कहां का इन्साफ है? ऐसे मैं दाम्पत्य जीवन नकारात्मक प्रभावों से बोझिल और बुरे परिणामों से ग्रस्त होने लगता है।
इस्लाम ने शिक्षा दी है कि पति, हलाल कमाई से अर्जित रोज़ी का एक कौर (लुक़मा) जो प्रेम के साथ पत्नी के मुँह में डालता है वह सदक़ा और इबादत का स्थान रखता है। इसमें दोनों के बीच प्रेम-संबंध के साथ-साथ इस बात की शिक्षा भी निहित है कि कमाने-धमाने का काम पति करे, कमाई करने के लिए पत्नी को घर के शांतिपूर्ण, सुखमय व सुरक्षित वातावरण से बाहर मेहनत-मशक़्क़त और मानसिक तनाव के वातावरण में, तथा ऐसे वातावरण में जाने से बचाए जहाँ उसके नारीत्व, गरिमा व शील को ख़तरा हो।
परिवार, पति-पत्नी और बच्चों से बनता है। इसमें माता-पिता और भाई-बहन के संबंध भी होते हैं। इस्लाम एक दृढ़ व उत्कृष्ट दाम्पत्य-व्यवस्था देने के बाद एक अच्छे से अच्छे परिवार की सृजन की ओर ध्यान देता है। वह परिवारजनों में, कर्तव्य-अधिकार संहिता के द्वारा एक-दूसरे के प्रति अच्छे संबंध स्थापित रखने का प्रावधान करता है।
माता-पिता, जीवन के किसी भी चरण में अगर आर्थिक रूप से स्वावलंबित न रहकर असहाय हो जाएँ ख़ास तौर से बुढ़ापे में, तो इस्लाम ने नैतिक स्तर के साथ-साथ क़ानूनी स्तर पर भी, उनके भरण-पोषण की ज़िम्मेदारी बेटों पर डाली है।
कु़रआन में (17:23) हुक्म दिया गया है कि माँ-बाप को (डाँटना, झिड़कना तो बहुत दूर की बात है) कभी ‘उफ़ ’ तक भी मत कहो। माता-पिता की नाफ़रमानी व अवज्ञा करने को, उन्हें मानसिक या भावनात्मक दुख देने को, उन्हें शारीरिक कष्ट देने को, और उनका अनादर व अपमान करने को ‘हराम’ क़रार दिया गया है और कहा गया है कि माता-पिता के साथ दुर्व्यवहार करने वाली संतान चाहे कितनी ही नेकियाँ, पुण्य कार्य और इबादत-पूजा-पाठ करके दुनिया से जाए, परलोक में वह नरक की भागी होगी।
ख़ून के रिश्तों को कमज़ोर करने से सख़्ती से रोका गया है और इन्हें तोड़ने, ख़त्म करने को वर्जित कर दिया गया है। आदेश है कि परिवार और ख़ून के रिश्तों के लोग तुम्हारे साथ दुर्व्यवहार भी करें तो भी तुम बदले में दुर्व्यवहार नहीं, सद्व्यवहार, उपकार और सहयोग व सहायता की नीति पर चलो। एक अच्छे परिवार, एक अच्छे ख़ानदान के सृजन व स्थापन के लिए सहानुभूति, आदर, प्रेम, सहयोग, क्षमाशीलता, उदारता, संयम, सहिष्णुता, उत्सर्ग, त्याग, शुभेच्छा, उत्सर्ग आदि नैतिक गुणों के साथ-साथ इस्लाम के पैग़म्बर हज़रत मुहम्मद (सल्ल॰) ने यह शिक्षा भी दी है कि ‘‘कमाल यह नहीं है कि तुम्हारे रिश्तेदार और परिजन तुम्हारे साथ सद्व्यवहार करें तब तुम (बदले में) उनके साथ सद्व्यवहार करो। कमाल इस में है कि यदि वे तुम्हारे साथ दुर्व्यवहार करें तब भी तुम बदले में दुर्व्यवहार नहीं, सद्व्यवहार और परोपकार करो।’’
अच्छे समाज में अच्छे परिवार पनपते हैं, अच्छे परिवार में अच्छे इन्सान बनते हैं। समाज में नेकियों, भलाइयों को फैलाना व स्थापित करना तथा बुराइयों को रोकना तथा उनका उन्मूलन करना तुम्हारा प्रमुख उत्तरदायित्व है (कु़रआन, 3:104, 7:157, 9:67,71, 22:41, 31:17)। कोई भी व्यक्ति यह सोचने का औचित्य नहीं रखता कि ‘‘कुछ भी हो रहा है, हम से क्या मतलब!’’ समाज में शराफ़त, नेकी, अच्छाई, भलाई का प्रचलन हो; नाइन्साफ़ी, बुराई, बदी, अत्याचार, अनाचार, अन्याय; बेहयाई, अश्लीलता, नग्नता और बेशर्मी आदि का उन्मूलन हो, इसके लिए इस्लाम के पैग़म्बर हज़रत मुहम्मद (सल्ल॰) ने आदेश दिया है कि ‘‘बुराई को देखो तो उसे हाथ से (अर्थात् बलपूर्वक) रोक दो; अगर इसकी क्षमता न हो तो ज़बान से (अर्थात्, बोलकर) रोको; अगर इसकी क्षमता भी न हो तो कम से कम, उस बुराई को दिल से तो बुरा जानो......लेकिन (सुन लो कि) यह अन्तिम स्थिति ईमान की सबसे अन्तिम, न्यूनतम श्रेणी है।’’
इस्लाम एक ऐसी सामाजिक व्यवस्था देता है जिसमें समाज का हर व्यक्ति, हर परिवार, हर घर आपसी मेल-मिलाप द्वारा एक-दूसरे से निरंतर जुड़ा रहे। लोग अलग-थलग, अपनी खाल में मस्त, अपनी व्यक्तिगत दुनिया में मग्न, अपने व्यक्तित्व या अपने परिवार के अन्दर सीमित, और अपने ही लाभ व स्वार्थ के चारों ओर कोल्हू के बैल की तरह घूमते न रहें।
पड़ोसियों में ख़राब तअल्लुक़ अक्सर एक सामाजिक अभिशाप बनकर उभरता है। इस्लाम ने आदेश दिया है कि पड़ोसी को कष्ट मत दो, उसे सताओ मत, वह कमज़ोर हो तो उसे दबाओ मत। उसे कभी हल्की-सी आशंका भी न हो कि तुम से उसके मान-सम्मान को या उसके धन-सम्पत्ति को कभी कोई क्षति हो सकती है, नुक़सान पहुँच सकता है। पैग़म्बर मुहम्मद (सल्ल॰) ने चेतावनी दी कि तुममें से कोई भी व्यक्ति सही मायने में, सच्चा मुस्लिम नहीं है जो पेट भरकर सोए और उसका पड़ोसी (निर्धनता या किसी और कारणवश) भूखा सोए।
इसी तरह आप (सल्ल॰) ने यह भी फ़रमाया कि वह व्यक्ति मुस्लिम नहीं है जिसकी शरारतों और उद्दंडता से उसका पड़ोसी सुरक्षित और अमान में न हो। इस्लाम अपनी सामाजिक व्यवस्था में ‘पड़ोसी से संबंध’ के बारे में इतना ज़्यादा संवेदनशील है कि पैग़म्बर (सल्ल॰) ने आदेश दिया है कि फल खाकर छिलके घर के बाहर मत डाल दो ताकि तुम्हारे (ग़रीब) पड़ोसी के बच्चे छिलके देखकर अपनी ग़रीबी महसूस करके उदास और दुखी न हो उठें।
किसी की मृत्यु हो जाए तो उसे दफ़न करने से पहले, इस्लाम ने उसकी सामूहिक नमाज़े जनाज़ा पढ़ने का हुक्म दिया है, और जनाज़े के साथ क़ब्रिस्तान तक जाने और दफ़न-क्रिया में शरीक होने का। फिर यह आदेश भी दिया गया है कि समाज के लोग, उसके परिजनों को तीन दिन तक खाना बनाकर, घर ले जाकर खिलाने का बन्दोबस्त करें। इससे दुखी परिवार को आभास व एहसास होता है कि पूरा समाज उसके दुख में शरीक है। लोग उसे अपना समझते हैं।
इस्लाम ने आदेश दिया है कि समाज में कोई बीमार पड़ जाए तो उसके पास लोगों को जाते रहना चाहिए। सहयोग करना चाहिए और उसके स्वास्थ्य के लिए दुआ करनी चाहिए।
इस्लाम की सामाजिक व्यवस्था में, ग़रीबों, निर्धनों, असहायों, अनाथों, बीमारों, पीड़ितों, असहाय विधवाओं आदि की हर प्रकार की, संभव सहायता करने के आदेश हैं। इस्लाम ने कहा है कि तुम ऐसा करोगे तो यह उन पर तुम्हारा कोई उपकार या एहसान न होगा, बल्कि अल्लाह ने (जिसने तुम्हें धन आदि दिया है) तुम्हारे धन व संसाधनों में उन ज़रूरतमन्दों का हिस्सा रखा है। इस भ्रम में मत पड़ो कि जो कुछ तुम्हारे पास है वह कुल का कुल तुम्हारा है। और देखो, उन पर ख़र्च करो तो उन पर एहसान जताकर उनको कष्ट मत पहुँचाना, उनका अपमान मत करना, उनसे कोई प्रतिदान, कोई बदला मत चाहना। प्रतिदान तो तुम्हें अल्लाह देगा; इस जीवन में भी, और परलोक जीवन में तो पुरस्कार व प्रतिदान की मात्र अत्यधिक, चिरस्थाई होगी।
इस्लाम ने मानवजाति को एक उत्तम व उत्कृष्ट सामाजिक व्यवस्था प्रदान की है। यह और बात है की बहुत से बाहरी कारणों से और बहुत से आन्तरिक कारकों से वर्तमान का मुस्लिम समाज, सही मायने में ‘इस्लामी समाज’ के मानदंड पर पूरा नहीं उतरता, और हमको इस कमी को दूर करते रहना चहिये.