फतवा , जिहाद और ,कट्टरवाद , इन शब्दों का जितना अधिक ग़लत अनुवाद और ग़लत इस्तेमाल हुआ है, उतना शायद किसी शब्द का नहीं हुआ। फतवा और कट्टरवाद ...
फतवा , जिहाद और ,कट्टरवाद , इन शब्दों का जितना अधिक ग़लत अनुवाद और ग़लत इस्तेमाल हुआ है, उतना शायद किसी शब्द का नहीं हुआ। फतवा और कट्टरवाद पे मैं पहले भी लिख चुका हूँ. फतवा देने का हक हर एक मुल्ला को नहीं हुआ करता। कट्टरवाद का सबसे बुरा रूप यह हैं की, आप को खुद अपने धर्म की अच्छी बातें भी बताने का अधिकार नही। इस कट्टरवाद मैं नफरत का रूप है, इस से हर इंसान को बचना चहिये. हम सबको एक दुसरे के धर्म की इज्ज़त करनी चहिये और दुसरे धर्म की अच्छी बातों को सुनना चहिये. , तभी एकता और भाईचारा बढ़ सकता है।
आतंकवाद और जिहाद के बीच भेद स्पष्ट करना आवश्यक है जिहाद इस्लाम मैं भगवान या अल्लाह की सेवा का एक रूप है जबकि युद्ध मैं यह सेवा रूप का आभाव है. आतंकवाद एक ऐसा युद्ध है जो अल्लाह के नाम पे अल्लाह के हुक्म की खुली नाफ़रमानी है।
जिहाद के कई चरण होते हैं:-
सुबह जब एक मुसलमान अज़ान की आवाज़ सुन ता है तो दिल कहता है ज़रा और सोने दो और एक अंदर की आवाज जोर देकर कहते हैं, 'उठो अल्लाह की इबादत का वक़्त हो गया है. और एक जिहाद शुरू हो जाता है इन्सान और उसके नफ्स के बीच. यह भी एक जिहाद है....
समाज मैं जब बुराई बढ़ जाती है और नेकी कम हो जाती है तो भी जिहाद किया जाता है कलम के ज़रिये ,अपने लेखों के ज़रिये, समाज में ,शांति स्थापित करने और बुराइयाँ दूर करने के लिए. यह भी अल्लाह की इबादत का एक रूप है और यह कुरआन और मुहम्मद (स.अव.) की हिदायतों और नसीहतों के ज़रिये ही किया जा सकता है।
इस्लाम हमें बताता है कि मुसलमानों को पहले अपने स्वयं के भीतर की बुराइयों के खिलाफ जिहाद करना चाहिए, हमारे बुरी आदतों के खिलाफ , झूठ बोलने की आदत के खिलाफ,फितना ओ फसाद फैलाने की आदत के खिलाफ, जलन, द्वेष, नफरत के खिलाफ , इस जिहाद को स्वयं के खिलाफ संघर्ष कहा जाता है।
यह जिहाद श्रीमद् भगवद गीता में कुछ ऐसे बताया गया है:
शत्रौ मित्रे पुत्रे बन्धौ, मा कुरु यत्नं विग्रहसन्धौ।
सर्वस्मिन्नपि पश्यात्मानं, सर्वत्रोत्सृज भेदाज्ञानम् ॥२५॥
भावार्थ : शत्रु, मित्र, पुत्र, बन्धु-बांधवों से प्रेम और द्वेष मत करो, सबमें अपने आप को ही देखो, इस प्रकार सर्वत्र ही भेद रूपी अज्ञान को त्याग दो ॥२५॥
कामं क्रोधं लोभं मोहं, त्यक्त्वाऽत्मानं भावय कोऽहम्।
आत्मज्ञान विहीना मूढाः, ते पच्यन्ते नरकनिगूढाः ॥२६॥
भावार्थ : काम, क्रोध, लोभ, मोह को छोड़ कर, स्वयं में स्थित होकर विचार करो कि मैं कौन हूँ, जो आत्म- ज्ञान से रहित मोहित व्यक्ति हैं वो बार-बार छिपे हुए इस संसार रूपी नरक में पड़ते हैं ॥२६॥
अपनी मेहनत की कमाई से अनाथों और विधवाओं और गरीबों की सहायता करना भी एक जिहाद है । इस इबादत का दर्जा बहुत ऊंचा है। और सबसे आखिरी जिहाद है हथियार का, यह जिहाद केवल रक्षात्मक ही हो सकता है। या यह कह लें की सिर्फ बचाव मैं ही हथियार उठाया जा सकता है, सामने से हमला करना जिहाद नहीं...अपने बचाव मैं किये जिहाद का भी कानून है. बच्चों , औरतों और बूढ़े, जो आपको नुकसान नहीं पहुंचा रहे, उनको कुछ ना कहो, नुकसान ना पहुँचाओ, अगर कोई अमन की आवाज़ बलंद करे तो उसे भी जाने दो। दुश्मन अगर पीठ दिखा जाए तो भी उसपे हमला मना है. यह जिहाद भी सिर्फ अल्लाह की राह मैं उसके दीन को बचाने के लिए किया जा सकता है।
अगर इस्लाम पे कोई हमला करे तो उसको बचाने का काम हथियार से होता है, जो की केवल रक्षात्मक ही हो सकता है और इस्लाम फैलाने का काम , कलम से, खुतबे से , अच्छा किरदार पेश करने से, और इन्साफ करने से होता है. इस्लाम मैं जब्र नहीं और इस्लाम को फैलाने के लिए ज़बरदस्ती मना है. कुरआन २: 256. दीन (के स्वीकार करने) में कोई ज़बर्दस्ती नहीं है.
कुरान ५:३२ मैं कहा गया है की अगर किसी ने एक बेगुनाह इंसान की जान ली तो यह ऐसा हुआ जैसे पूरे इंसानियत का क़त्ल किया और अगर किसी ने एक इंसान की जान बचाई तो उसने पूरी इंसानियत की जान बचाई.
२: १९० . जो तुम से लड़े, तुम भी उनसे अल्लाह की राह में जंग करो, परन्तु हद से न बढ़ो (क्योंकि) अल्लाह हद से बढ़ने वालों से प्रेम नहीं करता। २: १९२ . अगर वह अपने हाथ को रोक लें तो अल्लाह बड़ा क्षमा करने वाला और दयावान है।
जब इस्लाम इस रक्षात्मक जिहाद मैं इतनी शर्तें लगा सकता है तो यह इंसानों की जान लेने जैसी हरकतों को कैसे सही ठहरा सकता है, जिसमें यह भी नहीं पता होता की मरने वाला, बच्चा है, की औरत, बूढा है या , जवान, गुनाहगार है या बेगुनाह ?
इस्लाम ने उन लोगों को दो चेहरे वाला (मुनाफ़िक़) कहा है जो इस्लाम का नाम ले के कुरान की हिदायत के खिलाफ कोई भी काम अंजाम देते हैं. कुरआन में कहा गया है की (मुनाफ़िक़ यह समझते हैं कि) वह अल्लाह व मोमिनों को धोका दे रहे हैं, जबकि वास्तविकता यह है कि वह स्वयं को धोका देते हैं, लेकिन वह इस बात को नहीं समझ पा रहे हैं।
जिहाद की बेहतरीन मिसाल आप को वाक़ए कर्बला मैं देखने को मिलेगी और यहीं पे जिहाद और युद्ध या आतंकवाद का फर्क भी देखने को मिलेगा. इमाम हुसैन (अ) का आन्दोलन मानव इतिहास की एक अमर घटना है। सन 61 हिजरी में दसवीं मोहर्रम को जो कुछ कर्बला की धरती पर हुआ, वह केवल एक असमान युद्ध और एक दुख भरी कहानी नहीं थी । ये घटना सदगुणों के सम्मुख अवगुणों और भले लोगों से अत्याचारियों का युद्ध थी ।
इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम से जब अत्याचारी व क्रूर शासक यजीद ने मदीने मैं बैअत की मांग की तो इमाम हुसैन (अ) ने बैय्यत नहीं की और सपरिवार मदीने को ६१ हिजरी २८ सफ़र को छोड़ने का फैसला कर लिया, मक्के मैं हज्ज के दौरान जब उनको लगा दुश्मन यहाँ उनका खून बहाना चाहता है तो उन्होंने ने मक्के मैं खून खराबा ना हो और काबे की हुरमत बाकी रहे , इसके लिए हज्ज को उमरा मैं तब्दील कर के मक्का से कूफा की तरफ रुख किया ।
रास्ते मैं हुर जो लश्कर इ यजीद का सरदार था उसने इमाम हुसैन (अ) का रास्ता रोका, उस वक़्त उस हुर की फ़ौज प्यासी थी. इमाम हुसैन (अ) ने उस हुर को जो दुश्मन बन के आया था, उसके लश्कर को, जानवरों को सभी को पानी पिलाया और उनकी जान बचाई. यह इस्लाम है की अगर दुश्मन भी प्यासा हो और पानी मांग ले तो उसको भी पानी पिलाओ । इसी हुर ने ७ मुहर्रम को इमाम (अ) का पानी बंद कर दिया और उनके खेमों को दरया इ फुरात से हटवा दिया.
९ मुहर्रम आयी और इसी हुर के ज़मीर ने आवाज़ दी, ऐ हुर फातिमा (स) की औलाद पे तू ज़ुल्म कर रहा है? और हुर के अंदर जिहाद इ नफ्स शुरू हुआ , हुर कामयाब हुआ और इमाम हुसैन (अ) के पास आ के माफी मांगी। यह था हुर का जिहाद ऐ नफ्स जो उसको बातिल से हक की ओर ले आया. जैसे ही हुर ने माफी मांगी इमाम हुसैन (अ) ने उनको माफ़ कर दिया। यह था इमाम(अ) का किरदार।
जेहाद ए नफ़्स से बढ़ कर कोई जेहाद नहीं
न ख़ाक ओ ख़ूं की न तीर ओ कमां की बात करें.......शेफा कज्गओंवी
"कर्बला की घटना में यज़ीद की सिर से पैर तक शस्त्रों से लैस ३०००० या अधिक की सेना ने इमाम हुसैन (अ) और उनके 72 वफ़ादार साथियों को घेर लिया और अन्तत: सबको शहीद कर दिया। यहाँ तक कि शत्रु ने उनके सिर काट कर उन्के पवित्र शवों को कर्बला के मरुस्थल में छोड़ दिया। ६ महीने के प्यासे बच्चे को भी ,पानी मांगने पे शहीद कर दिया और उसका भी सर काट के नैज़े पे लगा दिया।
इमाम हुसैन की बहन हज़रत ज़ैनब (अ) जो मुसलमानों के खलीफा हज़रत अली (अ) की बेटी भी थीं, उनको और दूसरी महिलाओं, बच्चों को कैदी बना के ज़ुल्म किया गया ।
इमाम हुसैन ने इस्लाम धर्म के उसूल, न्याय, धर्म, सत्य, अहिंसा, सदाचार और ईश्वर के प्रति अटूट आस्था को अपने जीवन का आदर्श माना था और इमाम हुसैन ने इन्ही उसूलों पे चलते हुए कर्बला का जिहाद किया और सब्र करते हुए शहादत कुबूल की ।
वहीं यजीद ने भी खुद की इस आतंकवादी युद्ध को जिहाद का नाम दिया था. लेकिन छल, कपट, बेगुनाहों का क़त्ल,महिलाओं और बच्चों पे ज़ुल्म ने यह बता दिया की उसका युद्ध आतंकवाद था। यजीद को सत्य से हमेशा भय रहा, इसलिए अपनी कूटनीति से उसने कर्बला के मैदान में रसूल के परिवार जन, अनुयायी एवं समर्थकों को अपनी फौज से तीन दिनों तक भूखा- प्यास रखने के बाद शहीद करा दिया। और इस आतंकवाद की इस्लाम मैं कोई जगह नहीं, यह इमाम हुसैन ने यजीद के आतंकवाद के खिलाफ आवाज़ उठा के बता दिया ।
हजरत इमाम हुसैन की शहादत से यह पता चलता है कि जो हक और इंसाफ पर होता है, , जो सुसंस्कारी और सदाचारी होता है उसके खिलाफ भ्रष्ट और अन्यायी लोग साजिशों के जाल बुनते हैं, बेईमानी और बदसलूकी करते हैं, बदनामी के बवंडर चलाते हैं, चाटुकारों और चापलूसों के जरिए शातिरपने की शतरंज बिछाकर छल-फरेब की चालें चलते हैं, लेकिन आखिरकार ईमानदार के सामने बेईमान की हार हो जाती है।
इमाम हुसैन सत्य और अहिंसा के पुजारी थे। कर्बला मैं भी उन्होंने कोशिश की के युद्ध ना हो और यह इच्छा प्रकट की कि मुझे हिंदुस्तान चले जाने दो, ताकि शांति और अमन कायम रहे। जिसको भी यजीद ने नहीं माना ।
आज भी पूरे विश्व में कर्बला के इन्हीं शहीदों की याद में मुहर्रम मनाया जाता है। इस दिन को यौमे आशूरा कहा जाता है।
अज्ञानता के अंधकार से ज्ञान के प्रकाश की ओर आने की कोशिश को जिहाद कहते है. जिहाद समाज मैं शांति और इंसानियत स्थापित करने का नाम है और इसका आधार न्याय, धर्म, सत्य, अहिंसा, सदाचार और ईश्वर के प्रति अटूट आस्था है ।
दहशत गरी से पाक है दीन ए मुहम्मदी
इंसानियत तो रूह है दीनी नेसाब की ।
.......शेफा कज्गओंवी
इंसान को बेदार तो हो लेने दो ,
हर कौम पुकारेगी हमारे हैं हुसैन ” —- जोश मलीहाबादी
(Let humanity awaken and every tribe will claim Hussain as their own.)
“क़त्ल -इ -हुसैन असल मैं मर्ग -इ -यज़ीद है ,
इस्लाम ज़िंदा होता है हर कर्बला के बाद ” — मौलाना मोहम्मद अली जौहर
(In the murder of Hussain, lies the death of Yazid, for Islam resurrects after every Karbala)
आतंकवाद और जिहाद के बीच भेद स्पष्ट करना आवश्यक है जिहाद इस्लाम मैं भगवान या अल्लाह की सेवा का एक रूप है जबकि युद्ध मैं यह सेवा रूप का आभाव है. आतंकवाद एक ऐसा युद्ध है जो अल्लाह के नाम पे अल्लाह के हुक्म की खुली नाफ़रमानी है।
जिहाद के कई चरण होते हैं:-
सुबह जब एक मुसलमान अज़ान की आवाज़ सुन ता है तो दिल कहता है ज़रा और सोने दो और एक अंदर की आवाज जोर देकर कहते हैं, 'उठो अल्लाह की इबादत का वक़्त हो गया है. और एक जिहाद शुरू हो जाता है इन्सान और उसके नफ्स के बीच. यह भी एक जिहाद है....
समाज मैं जब बुराई बढ़ जाती है और नेकी कम हो जाती है तो भी जिहाद किया जाता है कलम के ज़रिये ,अपने लेखों के ज़रिये, समाज में ,शांति स्थापित करने और बुराइयाँ दूर करने के लिए. यह भी अल्लाह की इबादत का एक रूप है और यह कुरआन और मुहम्मद (स.अव.) की हिदायतों और नसीहतों के ज़रिये ही किया जा सकता है।
इस्लाम हमें बताता है कि मुसलमानों को पहले अपने स्वयं के भीतर की बुराइयों के खिलाफ जिहाद करना चाहिए, हमारे बुरी आदतों के खिलाफ , झूठ बोलने की आदत के खिलाफ,फितना ओ फसाद फैलाने की आदत के खिलाफ, जलन, द्वेष, नफरत के खिलाफ , इस जिहाद को स्वयं के खिलाफ संघर्ष कहा जाता है।
यह जिहाद श्रीमद् भगवद गीता में कुछ ऐसे बताया गया है:
शत्रौ मित्रे पुत्रे बन्धौ, मा कुरु यत्नं विग्रहसन्धौ।
सर्वस्मिन्नपि पश्यात्मानं, सर्वत्रोत्सृज भेदाज्ञानम् ॥२५॥
भावार्थ : शत्रु, मित्र, पुत्र, बन्धु-बांधवों से प्रेम और द्वेष मत करो, सबमें अपने आप को ही देखो, इस प्रकार सर्वत्र ही भेद रूपी अज्ञान को त्याग दो ॥२५॥
कामं क्रोधं लोभं मोहं, त्यक्त्वाऽत्मानं भावय कोऽहम्।
आत्मज्ञान विहीना मूढाः, ते पच्यन्ते नरकनिगूढाः ॥२६॥
भावार्थ : काम, क्रोध, लोभ, मोह को छोड़ कर, स्वयं में स्थित होकर विचार करो कि मैं कौन हूँ, जो आत्म- ज्ञान से रहित मोहित व्यक्ति हैं वो बार-बार छिपे हुए इस संसार रूपी नरक में पड़ते हैं ॥२६॥
अपनी मेहनत की कमाई से अनाथों और विधवाओं और गरीबों की सहायता करना भी एक जिहाद है । इस इबादत का दर्जा बहुत ऊंचा है। और सबसे आखिरी जिहाद है हथियार का, यह जिहाद केवल रक्षात्मक ही हो सकता है। या यह कह लें की सिर्फ बचाव मैं ही हथियार उठाया जा सकता है, सामने से हमला करना जिहाद नहीं...अपने बचाव मैं किये जिहाद का भी कानून है. बच्चों , औरतों और बूढ़े, जो आपको नुकसान नहीं पहुंचा रहे, उनको कुछ ना कहो, नुकसान ना पहुँचाओ, अगर कोई अमन की आवाज़ बलंद करे तो उसे भी जाने दो। दुश्मन अगर पीठ दिखा जाए तो भी उसपे हमला मना है. यह जिहाद भी सिर्फ अल्लाह की राह मैं उसके दीन को बचाने के लिए किया जा सकता है।
अगर इस्लाम पे कोई हमला करे तो उसको बचाने का काम हथियार से होता है, जो की केवल रक्षात्मक ही हो सकता है और इस्लाम फैलाने का काम , कलम से, खुतबे से , अच्छा किरदार पेश करने से, और इन्साफ करने से होता है. इस्लाम मैं जब्र नहीं और इस्लाम को फैलाने के लिए ज़बरदस्ती मना है. कुरआन २: 256. दीन (के स्वीकार करने) में कोई ज़बर्दस्ती नहीं है.
कुरान ५:३२ मैं कहा गया है की अगर किसी ने एक बेगुनाह इंसान की जान ली तो यह ऐसा हुआ जैसे पूरे इंसानियत का क़त्ल किया और अगर किसी ने एक इंसान की जान बचाई तो उसने पूरी इंसानियत की जान बचाई.
२: १९० . जो तुम से लड़े, तुम भी उनसे अल्लाह की राह में जंग करो, परन्तु हद से न बढ़ो (क्योंकि) अल्लाह हद से बढ़ने वालों से प्रेम नहीं करता। २: १९२ . अगर वह अपने हाथ को रोक लें तो अल्लाह बड़ा क्षमा करने वाला और दयावान है।
जब इस्लाम इस रक्षात्मक जिहाद मैं इतनी शर्तें लगा सकता है तो यह इंसानों की जान लेने जैसी हरकतों को कैसे सही ठहरा सकता है, जिसमें यह भी नहीं पता होता की मरने वाला, बच्चा है, की औरत, बूढा है या , जवान, गुनाहगार है या बेगुनाह ?
इस्लाम ने उन लोगों को दो चेहरे वाला (मुनाफ़िक़) कहा है जो इस्लाम का नाम ले के कुरान की हिदायत के खिलाफ कोई भी काम अंजाम देते हैं. कुरआन में कहा गया है की (मुनाफ़िक़ यह समझते हैं कि) वह अल्लाह व मोमिनों को धोका दे रहे हैं, जबकि वास्तविकता यह है कि वह स्वयं को धोका देते हैं, लेकिन वह इस बात को नहीं समझ पा रहे हैं।
जिहाद की बेहतरीन मिसाल आप को वाक़ए कर्बला मैं देखने को मिलेगी और यहीं पे जिहाद और युद्ध या आतंकवाद का फर्क भी देखने को मिलेगा. इमाम हुसैन (अ) का आन्दोलन मानव इतिहास की एक अमर घटना है। सन 61 हिजरी में दसवीं मोहर्रम को जो कुछ कर्बला की धरती पर हुआ, वह केवल एक असमान युद्ध और एक दुख भरी कहानी नहीं थी । ये घटना सदगुणों के सम्मुख अवगुणों और भले लोगों से अत्याचारियों का युद्ध थी ।
इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम से जब अत्याचारी व क्रूर शासक यजीद ने मदीने मैं बैअत की मांग की तो इमाम हुसैन (अ) ने बैय्यत नहीं की और सपरिवार मदीने को ६१ हिजरी २८ सफ़र को छोड़ने का फैसला कर लिया, मक्के मैं हज्ज के दौरान जब उनको लगा दुश्मन यहाँ उनका खून बहाना चाहता है तो उन्होंने ने मक्के मैं खून खराबा ना हो और काबे की हुरमत बाकी रहे , इसके लिए हज्ज को उमरा मैं तब्दील कर के मक्का से कूफा की तरफ रुख किया ।
रास्ते मैं हुर जो लश्कर इ यजीद का सरदार था उसने इमाम हुसैन (अ) का रास्ता रोका, उस वक़्त उस हुर की फ़ौज प्यासी थी. इमाम हुसैन (अ) ने उस हुर को जो दुश्मन बन के आया था, उसके लश्कर को, जानवरों को सभी को पानी पिलाया और उनकी जान बचाई. यह इस्लाम है की अगर दुश्मन भी प्यासा हो और पानी मांग ले तो उसको भी पानी पिलाओ । इसी हुर ने ७ मुहर्रम को इमाम (अ) का पानी बंद कर दिया और उनके खेमों को दरया इ फुरात से हटवा दिया.
९ मुहर्रम आयी और इसी हुर के ज़मीर ने आवाज़ दी, ऐ हुर फातिमा (स) की औलाद पे तू ज़ुल्म कर रहा है? और हुर के अंदर जिहाद इ नफ्स शुरू हुआ , हुर कामयाब हुआ और इमाम हुसैन (अ) के पास आ के माफी मांगी। यह था हुर का जिहाद ऐ नफ्स जो उसको बातिल से हक की ओर ले आया. जैसे ही हुर ने माफी मांगी इमाम हुसैन (अ) ने उनको माफ़ कर दिया। यह था इमाम(अ) का किरदार।
जेहाद ए नफ़्स से बढ़ कर कोई जेहाद नहीं
न ख़ाक ओ ख़ूं की न तीर ओ कमां की बात करें.......शेफा कज्गओंवी
"कर्बला की घटना में यज़ीद की सिर से पैर तक शस्त्रों से लैस ३०००० या अधिक की सेना ने इमाम हुसैन (अ) और उनके 72 वफ़ादार साथियों को घेर लिया और अन्तत: सबको शहीद कर दिया। यहाँ तक कि शत्रु ने उनके सिर काट कर उन्के पवित्र शवों को कर्बला के मरुस्थल में छोड़ दिया। ६ महीने के प्यासे बच्चे को भी ,पानी मांगने पे शहीद कर दिया और उसका भी सर काट के नैज़े पे लगा दिया।
इमाम हुसैन की बहन हज़रत ज़ैनब (अ) जो मुसलमानों के खलीफा हज़रत अली (अ) की बेटी भी थीं, उनको और दूसरी महिलाओं, बच्चों को कैदी बना के ज़ुल्म किया गया ।
इमाम हुसैन ने इस्लाम धर्म के उसूल, न्याय, धर्म, सत्य, अहिंसा, सदाचार और ईश्वर के प्रति अटूट आस्था को अपने जीवन का आदर्श माना था और इमाम हुसैन ने इन्ही उसूलों पे चलते हुए कर्बला का जिहाद किया और सब्र करते हुए शहादत कुबूल की ।
वहीं यजीद ने भी खुद की इस आतंकवादी युद्ध को जिहाद का नाम दिया था. लेकिन छल, कपट, बेगुनाहों का क़त्ल,महिलाओं और बच्चों पे ज़ुल्म ने यह बता दिया की उसका युद्ध आतंकवाद था। यजीद को सत्य से हमेशा भय रहा, इसलिए अपनी कूटनीति से उसने कर्बला के मैदान में रसूल के परिवार जन, अनुयायी एवं समर्थकों को अपनी फौज से तीन दिनों तक भूखा- प्यास रखने के बाद शहीद करा दिया। और इस आतंकवाद की इस्लाम मैं कोई जगह नहीं, यह इमाम हुसैन ने यजीद के आतंकवाद के खिलाफ आवाज़ उठा के बता दिया ।
हजरत इमाम हुसैन की शहादत से यह पता चलता है कि जो हक और इंसाफ पर होता है, , जो सुसंस्कारी और सदाचारी होता है उसके खिलाफ भ्रष्ट और अन्यायी लोग साजिशों के जाल बुनते हैं, बेईमानी और बदसलूकी करते हैं, बदनामी के बवंडर चलाते हैं, चाटुकारों और चापलूसों के जरिए शातिरपने की शतरंज बिछाकर छल-फरेब की चालें चलते हैं, लेकिन आखिरकार ईमानदार के सामने बेईमान की हार हो जाती है।
इमाम हुसैन सत्य और अहिंसा के पुजारी थे। कर्बला मैं भी उन्होंने कोशिश की के युद्ध ना हो और यह इच्छा प्रकट की कि मुझे हिंदुस्तान चले जाने दो, ताकि शांति और अमन कायम रहे। जिसको भी यजीद ने नहीं माना ।
आज भी पूरे विश्व में कर्बला के इन्हीं शहीदों की याद में मुहर्रम मनाया जाता है। इस दिन को यौमे आशूरा कहा जाता है।
अज्ञानता के अंधकार से ज्ञान के प्रकाश की ओर आने की कोशिश को जिहाद कहते है. जिहाद समाज मैं शांति और इंसानियत स्थापित करने का नाम है और इसका आधार न्याय, धर्म, सत्य, अहिंसा, सदाचार और ईश्वर के प्रति अटूट आस्था है ।
दहशत गरी से पाक है दीन ए मुहम्मदी
इंसानियत तो रूह है दीनी नेसाब की ।
.......शेफा कज्गओंवी
इंसान को बेदार तो हो लेने दो ,
हर कौम पुकारेगी हमारे हैं हुसैन ” —- जोश मलीहाबादी
(Let humanity awaken and every tribe will claim Hussain as their own.)
“क़त्ल -इ -हुसैन असल मैं मर्ग -इ -यज़ीद है ,
इस्लाम ज़िंदा होता है हर कर्बला के बाद ” — मौलाना मोहम्मद अली जौहर
(In the murder of Hussain, lies the death of Yazid, for Islam resurrects after every Karbala)
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