हम और हमारा धर्म नदी के दो किनारे क्यों ? हकीकत है यह की आज कोई भी धर्म हो सभी जगह धर्म कुछ और शिक्षा देता हैं और उसके मान ने वाले कुछ ...
हम और हमारा धर्म नदी के दो किनारे क्यों ? हकीकत है यह की आज कोई भी धर्म हो सभी जगह धर्म कुछ और शिक्षा देता हैं और उसके मान ने वाले कुछ और करते नजर आते हैं. और शायद इसी कारण से समाज मैं मन की शांति और जीवन का सुख नहीं है?
आज एक ओर बड़ी बड़ी दावतों में अमीर, खाना शान ओ शौकत दिखाने के लिए ,ज़रा सा खा के बाकी फैकने के लिए छोड़ दिया करता है वही दूसरी और ग़रीब दाने दाने को तरसता रहता है. क्या हम कभी सोंचते हैं की यह दाना उस भूखे ग़रीब के लिए कितना कीमती है? एक ओर अमीर के पास १०-१० घर हैं और रहता केवल एक घर मैं है. दूसरी और ग़रीब लू धुप, वर्षा, आंधी मैं एक छत के लिए तरसता है. क्या जब हम अपने वातानुकूलित घर मैं आराम से सोते हैं,तो क्या सोंचते हैं कभी उस ग़रीब के बारे मैं जो सर्द रात मैं, और बारिश मैं कांप के रात गुज़ार देता है और दिन मैं फिर मजदूरी पे चला जाता है?
आज के जो नेक लोग हैं वोह भी अपनी ज़िम्मेदारी समाज के प्रति नहीं महसूस करते. यहाँ तक की हमको लगता है की, हमारी जिमेदारी केवल, अपनी पत्नी और बच्चों की है. पिता की औलाद (भाई बहन) , उसकी पत्नी (मां) ,केवल पिता की ज़िम्मेदारी है. अगर पिता का स्वर्गवास हो जाए तो आप देख सकते हैं , की वहीं इंसान अपनी पत्नी के लिए , कीमती जेवर लाता है और मां के लिए केवल दो जोड़े कपडे. अपने बच्चों के लिए सभी ऐश ओ आराम और पिता के बच्चों के लिए, कुछ नहीं।
हम जब किसी की शादी करते हैं, तो उसमें इतना खर्च कर देते हैं की,उतने मैं किसी ग़रीब घर की २-३ साल की परवरिश हो जाए. और अब तो लोग जन्मदिन, और दूसरी पार्टियों का बहाना तलाशते हैं, दिखावा करने के लिए. वहीं एक तरफ ग़रीब की बेटी पैसे की कमी से घर मैं बैठी रह जाती है. हमने यह मां लिया है की समाज के प्रति , रिश्तेदारों के प्रति , दोस्तों और पड़ोसियों के प्रति हमारी कोई ज़िम्मेदारी नहीं है। इस्लाम मैं ज़रुरत से ज्यादा खर्च करने को इस्राफ कहते हैं और यह मना है. लेकिन केवल मना है, मानता कौन है?
ज्यादातर लोगों का मानना है कि अगर पैसा है तो सब कुछ कर सकते हैं, सब कुछ पा सकते हैं। लेकिन यह भी सत्य है की मन की शांति और जीवन का सुख पैसे से नहीं खरीदा जा सकता। मन की शांति और जीवन का सुखप्रेम और दूसरों का दुःख बाँटने मैं है. यह बात केवल वो समझ सकता है जिसने कभी किसी की मदद की हो।
जहाँ सवाल धन दौलत का आता है तो हम ग़रीब भाई के बारे मैं नहीं सोंचते.शायद आज ज़रुरत का ही दूसरा नाम मुहब्बत बन गया है. यह सब एक आम बातें हैं जो आज के समाज के सभी कौमों मैं मौजूद हैं।
इसी के विपरीत देखिये उनका हाल जो इस्लाम की सही नसीहतों पे चले और हमको भी चलना सिखाया . इमाम जाफ़र इ सादिक(अ.स) , जिनका ताल्लुक रसूल इ खुदा (स.अ.व) के घराने से है, का एक वाकेया इस प्रकारहै....
एक बार मदीने शहर मैं ग़ेहूं की कमी हो गयी. ग़रीब के लिए गेहूं खरीदना मुश्किल होने लगा।
हज़रत इमाम जाफ़र सादिक अलैहिस्सलाम ने मोतब से जो आपके घर की ज़रूरीयात के ज़िम्मेदार थे, पूछा: क्या इस साल मेरे घर में गेहूं है? मोतब ने कहा जी हाँ ५-६ महीने के लिए काफी है. इमाम (अ.स) ने हुक्म दिया इसको बाज़ार मैं जा के लोगों मैं कम दाम मैं बेच दो।
मोतब इमाम का हुकम बजा लाया और तमाम गेंहू बेचकर इमाम को खबर कर दिया। इमाम ने उसे हुकम दिया आज से हमारे घर की रोटी बाज़ार से लाना। मेरे घर की रोटी और लोगों के इस्तेमाल की रोटी में कोई फ़र्क नही होना चाहिए। आज से हमारे घर की रोटी आधे गेंहू और आधे जौ की होनी चाहिए।
इमाम(अ.स) ने कहा ख़ुदा का शुक्र है मैं साल भर तक गेंहू की रोटी इस्तेमाल करने की सलाहियत रख़ता हूँ लेकिन ऐसा काम नहीं करूंगा ताकि अल्लाह की बारगाह में जवाब न देना पड़े, कि मैंने समाज के लोगो की ज़िन्दगी की ज़रूरियात का लिहाज़ नहीं रख़ा ।
इसको कहते हैं, इस्लाम का तरीका और समाज मैं दूसरों की ज़रूरियात का ख्याल रखना.काश हम सब भी इसी तरह इस्लाम की नसीहतों पे चलते तो समाज मैं इतना असंतुलन ना होता. और हर इंसान सच्चे सुख को भोग रहा होता.
आज एक ओर बड़ी बड़ी दावतों में अमीर, खाना शान ओ शौकत दिखाने के लिए ,ज़रा सा खा के बाकी फैकने के लिए छोड़ दिया करता है वही दूसरी और ग़रीब दाने दाने को तरसता रहता है. क्या हम कभी सोंचते हैं की यह दाना उस भूखे ग़रीब के लिए कितना कीमती है? एक ओर अमीर के पास १०-१० घर हैं और रहता केवल एक घर मैं है. दूसरी और ग़रीब लू धुप, वर्षा, आंधी मैं एक छत के लिए तरसता है. क्या जब हम अपने वातानुकूलित घर मैं आराम से सोते हैं,तो क्या सोंचते हैं कभी उस ग़रीब के बारे मैं जो सर्द रात मैं, और बारिश मैं कांप के रात गुज़ार देता है और दिन मैं फिर मजदूरी पे चला जाता है?
आज के जो नेक लोग हैं वोह भी अपनी ज़िम्मेदारी समाज के प्रति नहीं महसूस करते. यहाँ तक की हमको लगता है की, हमारी जिमेदारी केवल, अपनी पत्नी और बच्चों की है. पिता की औलाद (भाई बहन) , उसकी पत्नी (मां) ,केवल पिता की ज़िम्मेदारी है. अगर पिता का स्वर्गवास हो जाए तो आप देख सकते हैं , की वहीं इंसान अपनी पत्नी के लिए , कीमती जेवर लाता है और मां के लिए केवल दो जोड़े कपडे. अपने बच्चों के लिए सभी ऐश ओ आराम और पिता के बच्चों के लिए, कुछ नहीं।
हम जब किसी की शादी करते हैं, तो उसमें इतना खर्च कर देते हैं की,उतने मैं किसी ग़रीब घर की २-३ साल की परवरिश हो जाए. और अब तो लोग जन्मदिन, और दूसरी पार्टियों का बहाना तलाशते हैं, दिखावा करने के लिए. वहीं एक तरफ ग़रीब की बेटी पैसे की कमी से घर मैं बैठी रह जाती है. हमने यह मां लिया है की समाज के प्रति , रिश्तेदारों के प्रति , दोस्तों और पड़ोसियों के प्रति हमारी कोई ज़िम्मेदारी नहीं है। इस्लाम मैं ज़रुरत से ज्यादा खर्च करने को इस्राफ कहते हैं और यह मना है. लेकिन केवल मना है, मानता कौन है?
ज्यादातर लोगों का मानना है कि अगर पैसा है तो सब कुछ कर सकते हैं, सब कुछ पा सकते हैं। लेकिन यह भी सत्य है की मन की शांति और जीवन का सुख पैसे से नहीं खरीदा जा सकता। मन की शांति और जीवन का सुखप्रेम और दूसरों का दुःख बाँटने मैं है. यह बात केवल वो समझ सकता है जिसने कभी किसी की मदद की हो।
जहाँ सवाल धन दौलत का आता है तो हम ग़रीब भाई के बारे मैं नहीं सोंचते.शायद आज ज़रुरत का ही दूसरा नाम मुहब्बत बन गया है. यह सब एक आम बातें हैं जो आज के समाज के सभी कौमों मैं मौजूद हैं।
इसी के विपरीत देखिये उनका हाल जो इस्लाम की सही नसीहतों पे चले और हमको भी चलना सिखाया . इमाम जाफ़र इ सादिक(अ.स) , जिनका ताल्लुक रसूल इ खुदा (स.अ.व) के घराने से है, का एक वाकेया इस प्रकारहै....
एक बार मदीने शहर मैं ग़ेहूं की कमी हो गयी. ग़रीब के लिए गेहूं खरीदना मुश्किल होने लगा।
हज़रत इमाम जाफ़र सादिक अलैहिस्सलाम ने मोतब से जो आपके घर की ज़रूरीयात के ज़िम्मेदार थे, पूछा: क्या इस साल मेरे घर में गेहूं है? मोतब ने कहा जी हाँ ५-६ महीने के लिए काफी है. इमाम (अ.स) ने हुक्म दिया इसको बाज़ार मैं जा के लोगों मैं कम दाम मैं बेच दो।
मोतब इमाम का हुकम बजा लाया और तमाम गेंहू बेचकर इमाम को खबर कर दिया। इमाम ने उसे हुकम दिया आज से हमारे घर की रोटी बाज़ार से लाना। मेरे घर की रोटी और लोगों के इस्तेमाल की रोटी में कोई फ़र्क नही होना चाहिए। आज से हमारे घर की रोटी आधे गेंहू और आधे जौ की होनी चाहिए।
इमाम(अ.स) ने कहा ख़ुदा का शुक्र है मैं साल भर तक गेंहू की रोटी इस्तेमाल करने की सलाहियत रख़ता हूँ लेकिन ऐसा काम नहीं करूंगा ताकि अल्लाह की बारगाह में जवाब न देना पड़े, कि मैंने समाज के लोगो की ज़िन्दगी की ज़रूरियात का लिहाज़ नहीं रख़ा ।
इसको कहते हैं, इस्लाम का तरीका और समाज मैं दूसरों की ज़रूरियात का ख्याल रखना.काश हम सब भी इसी तरह इस्लाम की नसीहतों पे चलते तो समाज मैं इतना असंतुलन ना होता. और हर इंसान सच्चे सुख को भोग रहा होता.
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