आज हज़रत अली(अ.स) का जन्मदिन है ,उनकी हिदायतें आज तक हमारे जीवन को सफल बना रही हैं. पेंशन के बारे मैं आज सभी जानते हैं यह हज़रत अली (अस) का ...
आज हज़रत अली(अ.स) का जन्मदिन है ,उनकी हिदायतें आज तक हमारे जीवन को सफल बना रही हैं. पेंशन के बारे मैं आज सभी जानते हैं यह हज़रत अली (अस) का १४०० साल पहले दिया इस्लामी मशविरा भी रहा है का, शायद इस बात को बहुत कम लोग जानते होंगे.
एक बूढ़े ने ज़िन्दगी भर मेहनत करके ज़हमतें उठाईं लेकिन ज़ख़ीरे के तौर पर कुछ भी जमा न कर सका, आख़िर में नाबीना भी हो गया। बूढ़ापा, और मुफ़लिसी सब एक साथ जमा हो गई थीं । भीख माँगने के सिवा अब उसके पास कोई दूसरा रास्ता न था इसलिए वोह एक गली में एक तरफ़ ख़ड़ा होकर भीख माँगता था। लोग बाग उस पर रहम खाकर उसको सदके के तौर पर एक-एक पैसा देते थे । इस तरह वोह अपनी फ़कीराना और रंज आमेज़ ज़िन्दगी बसर कर रहा था।
यहाँ तक कि एक दिन जब हज़रत अमीरुल मोमिनीन अली इब्ने अबी तालिब (अ.) उधर से गुज़रे और उसको इस हालत में देख़ कर हज़रत अली (अ.) उस बूढ़े के हालात की तहकीक में लग गए ताकि समझ सकें कि यह शख़्स इन दिनों ऐसी हालत में क्यों मुबतला है?
और यह मालूम करें कि इसका कोई लड़का है जो कि इसका कफ़ील हो सके। क्या और कोई दूसरा रास्ता है जिसके ज़रिए यह बूढ़ा इज़्ज़त के साथ ज़िन्दगी बसर कर सके और भीख न मांगे।
बूढ़े को पहचानने वाले आए और उन्होंने गवाही दी कि जब तक जवानी थी और आँख़े भी ठीक थी यह काम करता था। अब जबकि जवानी से महरूम और बीमारी में दोचार हो चुका है और कोई काम नहीं कर सकता, इसलिए गैर इख़्तियारी तौर पर भीख माँगता है।
हज़रत अली (अ.) ने फ़रमाया, अजीब बात है जब तक यह जवान था और ताकत रखता था तुम लोगों ने इससे काम लिया और अब तुम ने इसको इसके हाल पर छोड़ दिया है। इस शख़्स के गुज़श्ता हाल से यह पता चलता है कि जब तक ताकत रख़ता था काम करके ख़िदमते खल्क़ की। इस वजह से हुकूमत व समाज की यह ज़िम्मेदारी है कि जब तक यह ज़िन्दा रहे इसकी ज़रूरियात को पूरा करें और इसको बैतुलमाल से मुस्तकिल कुछ रक़्म दिया करें।
आज १४०० साल बाद भी इस पेंशन की अहमियत से इनकार नहीं किया जा सकता.
टिप्पणी : मेरे इस लेख़ का यह मतलब नहीं की यह पेंशन की सलाह किसी और धर्म मैं नहीं या इस्लाम से ही लिया गया है. मेरा कहना यह है की इसके बारे मैं इस्लाम मैं भी कहा गया है...
एक बूढ़े ने ज़िन्दगी भर मेहनत करके ज़हमतें उठाईं लेकिन ज़ख़ीरे के तौर पर कुछ भी जमा न कर सका, आख़िर में नाबीना भी हो गया। बूढ़ापा, और मुफ़लिसी सब एक साथ जमा हो गई थीं । भीख माँगने के सिवा अब उसके पास कोई दूसरा रास्ता न था इसलिए वोह एक गली में एक तरफ़ ख़ड़ा होकर भीख माँगता था। लोग बाग उस पर रहम खाकर उसको सदके के तौर पर एक-एक पैसा देते थे । इस तरह वोह अपनी फ़कीराना और रंज आमेज़ ज़िन्दगी बसर कर रहा था।
यहाँ तक कि एक दिन जब हज़रत अमीरुल मोमिनीन अली इब्ने अबी तालिब (अ.) उधर से गुज़रे और उसको इस हालत में देख़ कर हज़रत अली (अ.) उस बूढ़े के हालात की तहकीक में लग गए ताकि समझ सकें कि यह शख़्स इन दिनों ऐसी हालत में क्यों मुबतला है?
और यह मालूम करें कि इसका कोई लड़का है जो कि इसका कफ़ील हो सके। क्या और कोई दूसरा रास्ता है जिसके ज़रिए यह बूढ़ा इज़्ज़त के साथ ज़िन्दगी बसर कर सके और भीख न मांगे।
बूढ़े को पहचानने वाले आए और उन्होंने गवाही दी कि जब तक जवानी थी और आँख़े भी ठीक थी यह काम करता था। अब जबकि जवानी से महरूम और बीमारी में दोचार हो चुका है और कोई काम नहीं कर सकता, इसलिए गैर इख़्तियारी तौर पर भीख माँगता है।
हज़रत अली (अ.) ने फ़रमाया, अजीब बात है जब तक यह जवान था और ताकत रखता था तुम लोगों ने इससे काम लिया और अब तुम ने इसको इसके हाल पर छोड़ दिया है। इस शख़्स के गुज़श्ता हाल से यह पता चलता है कि जब तक ताकत रख़ता था काम करके ख़िदमते खल्क़ की। इस वजह से हुकूमत व समाज की यह ज़िम्मेदारी है कि जब तक यह ज़िन्दा रहे इसकी ज़रूरियात को पूरा करें और इसको बैतुलमाल से मुस्तकिल कुछ रक़्म दिया करें।
आज १४०० साल बाद भी इस पेंशन की अहमियत से इनकार नहीं किया जा सकता.
टिप्पणी : मेरे इस लेख़ का यह मतलब नहीं की यह पेंशन की सलाह किसी और धर्म मैं नहीं या इस्लाम से ही लिया गया है. मेरा कहना यह है की इसके बारे मैं इस्लाम मैं भी कहा गया है...
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